४५ यजरवेद संहिता
१५०. अदित्यास्त्वा मू्धन्नाजिधरमिं देवयजने पृथिव्याः इडायास्पदमसि स्वाहा ।
अस्मे रमस्वास्मे ते बन्धुस्त्वे रायो मे रायो मा वयश्भरायस्योषेण विषो तोतो रायः ॥
सम्पूर्ण पृथ्वी में श्रेष्ठ स्थान स्वरूप देवों के यजन स्थान (यञ्चशाला) में (हे वाक् देवि ! आपको घृताहुति
प्रदान करते हैं । आप पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी हैं | हमारी इस घृताहुति से आप सन्तुष्ट हों । आप ऐश्वर्ववान्
हैं, हमें अपना बन्धु समझकर धन-धान्य से पुष्ट करें । हमें इससे वंचित न करे ॥२२ । ।
१५१, समख्ये देव्या धिया सं दक्षिणयोरुचक्षसा । मा मऽआयुः प्रमोषीर्मोऽअहं तव वीरं
विदेय तव देवि सन्दृशि ॥२३॥
(है सोमक्रयणी देवि !) दीप्तिमती, दक्षिणायोग्य, विस्तीर्ण दर्शन युक्त आपके द्वारा विवेकपूर्वक हमें देखा
मया है । पलीसहित हमारी आयु को आप क्षीण न करे । आपकी आयु को हम नष्ट न करें । आपकी कृपा-दृष्टि
में रहते हुए हम पराक्रमी पुत्र प्राप्त करें ॥२३ ॥
[अविवेकपूर्वक बोली गयी वाणी फलित होने के पहले ही प्रभावहीन हो जाती है । वाणी की आयु क्षीण न हो, इसलिए
साधक विवेकयुक्त वाणी ही ओलें ॥]
१५२. एष ते गायत्रो भागऽ इति मे सोमाय ब्रूतादेष ते त्रैष्टुभो भागऽ इति मे सोमाय बूादेष
ते जागतो भागऽ इति में सोमाय ब्रूताच्छन्दोनामाना% साप्राज्यं गच्छेति मे
ब्रुतादास्माकोसि शुक्रस्ते ग्रह्यो विचितस्त्वा वि चिन्वन्तु ॥२४॥
है सोम ! यह सामने दृष्टिगोचर होने वाला आपका भाग गायत्री छन्द का है यह आपका त्रिष्टप् छन्द
का भाग है, यह आपका जमती सम्बन्धी छन्द का भाग है । (इस प्रकार यजमान के अभिप्राय को अध्वर्यु
सोम के लिए कहें )) आप उष्णिक् आदि छन्दो के अधिपति हो जाएँ । हमारे इस अभिप्राय को आप
सोम को सूचित करें । हे दिव्य सोम ! क्रयरूप में आते पर भी आपसे हमारा अपनत्व है । शुक्र आदि ग्रह आपके
ही ( अनुशासन मे) है । विवेकपूर्वक आपका चयन करने वाले, तत्त्व ओर अतत्त्व का निर्णय करके (मात्र श्रेष्ठ
अंश को ही) ग्रहण करें ॥२४ ॥
१५३. अभि त्यं देव ९ सवितारमोण्योः कविक्रतुमर्चामि सत्यसव रत्नधामभि प्रियं
भतिं कविम् । ऊर्ध्वा यस्यामतिर्भा ऽ अदिद्युतत्सवीपनि हिरण्यपाणिरमिमीत सुक्रतुः कृपा
स्व: । प्रजाभ्यस्त्वा प्रजास्त्वानुप्राणन्तु प्रजास्त्वमनुप्राणिहि ॥२५ ॥
चुलोक और पृथ्वीलोक के मध्व विद्यमान, मेधावी, सत्य-प्रेरक, रत्लपोषक, सभो प्रणयो द्वारा चाहे जाने
वाले, स्मरण करने योग्य, नवीन तत्त्वों का साक्षात्कार करने वाले, ऊर्ध्व-मुख होकर आकाश में विद्यमान, सभी को
प्रकाशित करने वाले, अपनी दीप्ति से स्वयं भी प्रकाशित होने वाले, स्वर्ण निर्मित आभरण से युक्त हाथ वाले,
सत्संकल्प से स्वर्गरचना में समर्थ सवितादेवता की हम अर्चना करते हैं । हे सोम ! प्रजाओं के उपकार के लिए
हम आपको स्थिर करते है । हे सोम ! श्वास लेने में आपका अनुसरण करती हुई प्रजाएँ जीवन-धारण करें आप
भी प्रजाओं का अनुगमन करते हुए श्वास लें (अर्थात् परस्पर एक दूसरे का अनुगमन करते हुए जीवन धारण करें ।)
१५४. शुक्रं त्वा शुक्रेण क्रीणामि चन्द्रं चन्द्रेणामृतममृतेन। सम्मे ते गौरस्मे ते चन्द्राणि
तपसस्तनूरसि प्रजापतेर्वर्ण: परमेण पशुना क्रीयसे सहस्रपोषं पुषेयम् ॥२६ ॥
चन्द्रमा के समान आह्वादक, अमृतस्वरूप हे सोम ! दीप्तिमान् आंपको हम चमकते हुए सोने से क्रय करते
हैं । हे सोम विक्रेता ! सोम मूल्य के बदले आपको बेची गयी गौ, पुनः यजमान के पास वापस आ जाए. । आपको
दिवा गया देदीप्यमान स्वर्णं हमारे पास वापस आ जाए । (हे अजे ! तुम तपस्वियों की पुण्य देह हो तथा सभी