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अ १०]

* प्रथम स्कन्ध *

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उत्कण्ठावश उमड़ते हुए आँसुओंसे भर आये; परन्तु इस

भयते कि कहीं यात्रके समय अशकुन न हो जाय, उन्देनि

बड़ी कठिनाईसे उन्हें रोक लिया॥ ९४ ॥

भगवान्‌के प्रस्थानके समय मृदङ्ग, शङ्ख,

वीणा, ढोल, नरसिंगे, ुनधुरी, नगरे, घेरे और दुन्दुभियाँ

आदि बजे बजने लगे॥१५॥ भगवानके दर्शनकी

लालसासे कुर्वशकी ज्लियाँ अटारियॉपर चढ़ गयीं और

गेम, लज्जा एवं मुसकानसे युक्त चितबनसे भगवान्‌कों

देखती हुई उनपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगौ ॥ १६ ॥ उस

समय भगवानके प्रिय सखा घुँघधराले बालोंबाले अर्जुने

अपने प्रियतम श्रीकृष्फा वह श्रेत छतर, जिसमें

मोतियोंकी झालर लटक रही थी और जिसका डंडा

रत्रोंका बना हुआ था, अपने हाथमें ले लिया॥ १७॥

उद्धव और सात्यकि बड़े विचित्र चैंवर डुलाने लगे।

मार्गम भगवान्‌ श्रीकृष्णपर चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो

रही थी बड़ी ही मधुर की थी॥ १८ ॥ जहाँ-तहाँ

ब्राह्मणोकि दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे ।

चे सगुण भगवानके तो अनुरूप हौ थे; क्योकि उनमें सब

कुछ है, परन्तु निर्गुणके अनुरूप नहीं थे, क्योंकि उनमें

कोई प्राकृत गुण नहीं है ॥ १९ ॥ हस्तिनापुरकी कुलीन

रमणियाँ, जिनका चित्त भगवान्‌ श्रीकष्णमें रम गया था

आपसमें ऐसी बातें कर रही थीं, जो सबके कान और

मनको आकृष्ट कर रही थीं॥ २० ॥

† वे आपसमें कह रही थीं--'सखियो ! ये वे ही

सनातन परम पुरुष हैं, जो प्रलयके समय भौ अपने

अद्वितीय निर्विशेष स्वरूपमें स्थित रहते हैं। उस समय

सृष्टिके मूल ये तीनों गुण भी नहीं रहते । जगदात्मा ईश्वरमें

जीव भी लीन हो जाते हैं और महत्तत्त्वादि समस्त शक्तियाँ

अपने कारण अव्यक्तमें सो जाती है ॥ २१॥ उन्होंने ही

फिर अपने नाम-रूपरहित स्वरूपमें नामरूपके निर्माणकी

इच्छा की, तथा अपनो काल-शक्तिसे प्रेरित प्रकतिका, जो

कि उनके अंशभूत जीवॉको मोहित कर लेती है और

सृष्टिकी रचनामें प्रवृत्त रहती है, अनुसरण किया और

व्यवहारके लिये वेदादि शासत्रोंकी रचना की ॥ २२ ॥ इस

जगत्‌में जिसके स्वरूपका साक्षात्कार जितेन्द्रिय योगी

अपने ऋणोंको यरे करके भक्तिसे प्रफुल्लित निर्मल

हृदयमें किया करते हैं, ये श्रीकृष्ण वही साक्षात्‌

परब्रह्म हैं। वास्तवमें इन्हींकी भक्तिसे अन्तःकरणकी पूर्ण

शुद्धि हो सकती है, योगादिके द्वारा नहीं॥ २३ ॥ सखी !

वास्तवे ये वही हैं, जिनकी सुन्दर लीलाओंका गायन

भेरी, वेदोंपें और दूसरे गोपनीय शास्त्रॉमें व्यासादि रहस्यवादी

ऋषियोंने किया है--जो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और

अपनी लीलासे जगत्‌की सृष्टि, पालन तथा संहार करते

हैं, परन्तु उनमें आसक्त नहीं होते॥ २४॥ जब तामसौ

बुद्धिवाले राजा अधर्मसे अपना पेट पालने लगते हैं तब

ये ही सतत्वगुणको स्वीकारकर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत, दया

और यश प्रकट करते ओर संसारके कल्याणके लिये

युग-युगमे अनेको अवतार धारण करते रै ॥ २५॥

अहो ! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि

लक्ष्मोपति पुरुषोत्तम श्रीकृष्णने जन्म ग्रहण करके इस

शको सम्मानित किया है। वह पवित्र मधुवन

(त्रनमण्डल) भी अत्यन्त धन्य है, जिसे इन्होंने अपने

शौशव एतं किशोगवस्थामे घृम-फिरकर सुशोभित किया

दै॥ २६॥ बड़े हर्षकी बात है कि द्रारकाने स्वर्गके

यशका तिरस्कार करके पृथ्वीके पवित्र यशकों बढ़ाया है।

क्यो न हो, वकी प्रजा अपने स्वामी भगवान्‌

श्रीकृष्णको, जो बड़े प्रेमसे मन्द-मन्द मुसकराते हुए उन्हें

कृषादृष्टिसे देखते हैं, निरन्तर निहारती रहती हैं॥ २७॥

सखी ! जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है, उन लियोन

अवश्य ही त्रत, स्नान, हवन आदिके द्वारा इन परमात्माकी

आराधना की होगी; क्योंकि वे बार-बार इनकी उस

अधर-सुधाका पान करती हैं, जिसके स्मरणमात्रसे ही

ब्रजबालाएँ आनन्दसे मूर्च्छित हो जाया करती थीं॥ २८ ॥

ये स्वयंबरमें शिशुपाल आदि मतवाले राजाओंका मान

मर्दन करके जिनको अपने बाहुबलसे हर लाये थे तथा

जिनके पुत्र प्रचुम्न, साम्य, आम्ब आदि हैं, वे रुक्मिणी

आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुरको मारकर लायी हुई

जो इनकी हजारों अन्य पत्नियाँ हैं, वे वास्तवे धन्य हैं।

क्योंकि इन सभीने स्वतन्त्रता और पत्रित्रतासें रहित

स््रीजीवनको पवित्र और उज्ज्वल बना दिया है। इनकी

महिमाका वर्णन कोई क्या करे। इनके स्वामी साक्षात्‌

कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं, जो नाना प्रकारकी प्रिय

चेष्टाओं तथा पारिजातादि प्रिय वस्तुओंकी भेंटसें इनके

हृदयमें प्रेम एवं आनन्दकी अभिवृद्धि करते हुए कभी एक

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