Home
← पिछला
अगला →

१...... 37 7]

४९

अब आगे ये असाधारण (विशेष) मुद्राएँ बतायी | लिये है॥ १--४ २ ॥

जाती हैं। दोनों हाथोंमें अँगूठेसे कनिष्ठातककी

तीन अँगुलियोंको नवाकर कनिष्ठा आदिको

क्रमशः मुक्त करनेसे आठ मुद्राएँ बनती हैं।

'अकचटतपयश'-येजो आठ वर्ग हैं,

उनके जो पूर्व बीज (अं कं चं टं इत्यादि) हैं,

दाहिने हाथके ऊपर बायें हाथकों उतान

रखकर उसे धीरे-धीरे नीचेको झुकाये। यह

वराहकी मुद्रा मानी गयी है। ये क्रमशः अद्गौकी

मुद्राएँ हैं। बायीं मुट्ठीमें बँंधी हुई एक-एक

अँगुलीको क्रमश: मुक्त करे और पहलेकी मुक्त

उनको ही सूचित करनेवाली उक्त आठ मुद्राएँ | हुई अँगुलीको फिर सिकोड़ ले। बाय हाथमें ऐसा

हैं -ऐसा निश्चय करे। फिर पाँचों अँगुलियोंको

ऊपर करके हाथको सम्मुख करनेसे जो नवीं

मुद्रा बनती है, वह नवम बीज (क्षं)-के

करनेके बाद दाहिने हाथमे भी यही क्रिया करे।

बायीं मुद्रीके अँगूठेकों ऊपर उठाये रखे। ऐसा

करनेसे मुद्राएँ सिद्ध होती हैं॥५--७॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'मुद्ालक्षण-वर्णन ' नामक छब्बीसवाँ अभ्याय पूरा हुआ ॥ २६ #

व ० पक

सत्ताईसवाँ अध्याय

शिष्योंको दीक्षा देनेकी विधिका वर्णन

नारदजी कहते हैं-- महर्षिंगण! अब मैं सब | फिर वासुदेव-मन्त्रसे उत्तान हाथके द्वारा समस्त

कुछ देनेवाली दीक्षाका वर्णन करूँगा। कमलाकार

मण्डलमें श्रीहरिका पूजन करे। दशमी तिधिको

समस्त यज्ञ-सम्बन्धी द्रव्यका संग्रह एवं संस्कार

(शुद्धि) करके रख ले। नरसिंह-बीज-मन्त्र ( क्षौं)-

से सौ बार उसे अभिमन्त्रित करके, उस मन्त्रके

अन्ते "फट्‌" लगाकर बोले तथा राक्षसोंका

विनाश करनेके उदेश्यसे सब ओर सरसों छीटे।

फिर वहाँ सर्वस्वरूपा प्रासादरूपिणी शक्तिका

न्यास करे। सर्वौषधियोंका संग्रह करके बिखेरनेके

उपयोगमें आनेवाली सरसों आदि वस्तुओंको शुभ

पात्रमें रखकर साधक वासुदेव-मन्त्रसे उनका सौ

बार अभिमन्त्रण करें। तदनन्तर वासुदेवसे लेकर

नारायणपर्यन्त पूर्वोक्त पाँच मूर्तियों (वासुदेव,

संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा नारायण)-के

मूल-मन्त्रोंद्वारा पक्चगव्य तैयार करे और कुशाग्रसे

विकिर वस्तुओंको सब ओर बिखेरे। उस समय

पूर्वांभिमुख खड़ा हो, मन-ही-मन भगवान्‌ विष्णुका

चिन्तन करते हुए तीन बार उन विकिर वस्तुओंको

सब ओर छीटे। तत्पश्चात्‌ वर्धनीसहित कलशपर

स्थापित भगवान्‌ विष्णुका अङ्गसहित पूजन करे।

अखर-मन्त्रसे वर्धनीको सौ बार अभिमन्त्रित

करके अविच्छिन्न जलधारासे सींचते हुए उसे

ईशानकोणकौ ओर ले जाय । कलशको पीछे ले

जाकर विकिरपर स्थापित करे। विकिरद्रव्यौको

कुशद्वारा एकत्र करके कुम्भेश और कर्करीका

यजन करे ॥ १--८॥

पञ्चरत्नयुक्त सवख वेदीपर श्रीहरिकी पूजा

करे। अग्निम भी उनकी अर्चना करके पूर्ववत्‌

मन्त्रोदरारा उनका संतर्पण करे । तत्पश्चात्‌ पुण्डरीक *-

मन्त्रसे उखा (पात्रविशेष) -का प्रक्षालन करके

पञ्चगव्य छिड्ककर उस भूमिका प्रोक्षण करे । | उसके भीतर सुगन्धयुक्तं घी पोत दे। इसके बाद

* पुण्डलेक-मन््र -

"ॐ अपचित्रः पविज़ो वा सर्वायस्थां गतोऽपि वा। यः स्मत्‌ पुण्डरीकाक्ष॑ स बाह्याभ्यन्तरः रुचिः #'

362 अग्नि पुराण ३

← पिछला
अगला →