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सर्बात्मकोऽसि सर्वेश सर्वभूतस्थितो यतः ।
कथयामि ततः किं ते सर्व वेत्सि हदिस्थितम् ॥ ७२
सर्बात्मन्सर्वभूतेदा सर्वसत्त्वसमुद्धत ।
सर्वभूतो भवान्वेत्ति सर्वसतत्वमनोरथम् ॥। ७३
यो मे पनोरथो नाध सफल: स त्वया कृतः ।
तपश्च तप्तं सफलं यददुष्टोऽसि जगत्पते ॥ ७४
श्रीभगवानुवाच
तपसस्तत्फल प्राप्त यद्ुष्टोऽहं त्वया धुव ।
मदर्नं हि विफलं राजपुत्र न जायते ॥ ७५
वरं वरय तस्मात््वं यथाभिमतपात्पनः ।
सर्व॑ सप्यष्यते पुंसां मयि दृष्टिपथं गते ॥ ७६
षव उवाच
भगवन्धूतभव्येश सर्वस्यास्ते भवान् हदि ।
किमज्ञातं तव ब्रह्मन्यनसा यन्पयेक्षितम् ।। ७७
तथापि तुभ्यं देवेश कथयिष्यामि यन्मया ।
प्रार्थ्यते दुर्विनीतेन हदयेनातिदुर्लभम् ॥ ७८
कि वा सर्वजगर्स्रष्ट: प्रसन्ने त्वयि दुर्लभम् ।
त्वत््मसादफलं भुलत्ते त्रैलोक्यं मघवानपि । ७९
नैतद्राजासनं॑ चोम्यमजातस्य ममोदरात् ।
इतिगर्वादवोचन्पां सपत्नी मातुरूचकैः ॥ ८०
आधारभूत जगतः सर्वेषापुत्तमोत्तमप् ।
प्रार्थयामि प्रभो स्थानं त्व्मसादाद्तोऽव्ययम् ॥ ८१
श्रीभगवानुवाच
यत्त्वया प्रार्थ्यते स्थानमेतत्प्राप्यति वै भवान् ।
त्वयाऽहं तोषितः पूर्वपन्यजन्मनि बालक ॥ ८२
त्वपासीर््रह्मणः पूर्व मय्येकाग्रपतिः सदा ।
मातापित्रोश्च शुश्रूषुर्निजधर्मानुपाछक: ॥ ८३
कालेन गच्छता मित्रं राजयपुत्रस्तवाभवत् ।
यौवनेऽखित्भोगाद्घो दर्शनीयोज्ज्वलाकृतिः ॥ ८४
तत्सङ्कात्तस्य तामृद्धिमवल्लोक्यातिदुर्लभाम् ।
भयेयं राजपुत्रोऽहमिति वाञ्छा त्वया कुता ॥ ८५
प्रीविष्णुपुराण
[ आ« १२
करनेवाले होनेसे सब कुछ आप ही हैं; सब कुछ आपहीसे
हुआ है; अतयव सबके द्वारा आप ही हो रहे हैं इसलिये
आप सर्वात्मको नमस्कार है॥ ७१ ॥ है सर्वेश्वर ! आप
सर्वात्मक हैं; क्योंकि सम्पूर्ण भूतोंमें व्याप्त हैं; अत: मैं
आपसे क्या कहूँ ? आप स्वय ही सज हृदयस्थित बातोंको
जानते हैं ॥ ७२ ॥ हे सर्वात्मन् ! हे सर्वभूतेश्वर ! हे सब
भूतोंके आदि-स्थान ! आप सर्वभूतरूपसे सभी प्राणियोके
मनोर्थोकौ जानते हैं ॥७३ ॥ हे नाथ ! मेरा जो कुछ
मनोरथ था वह तो आपने सफल कर दिया ओर हे
जगत्पते ! मेरी तपस्या भी सफल हो गयी, क्योंकि मुझे
आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ ॥ ७ड ॥
श्रीभगवान् खोत्ठे---हे धुव ! तुमको मेरा साक्षात्
दर्यान प्राप्त हुआ, इससे अवश्य ही तेरी तपस्या तो सफल
हो गयी; परन्तु हे राजकुमार ! मेरा दर्शन भी तो कभी
निष्फल नहीं होता ॥ ७५ ॥ इसलिये तुझकों जिस वरकी
इच्छा हो वह माँग ले । मेरा दर्शन हो जानेपर पुरुषको सभी
कुछ प्राप्त हो सकता है ॥ ७६ ॥
धुव बोले--हे भूतभव्येश्वर भगवन् ! आप
सभोके जन्तःकर्णोमिं विराजमान हैं। हे ऋऋहणन् ! मेरे
मनकी जो कुछ अभिल्षा है वह क्या आपसे छिपी हुई
है? ॥७७॥ ते भी, हे देवेश्वर ! मैं दुर्विनीत जिस अति
दुर्लभ वस्तुकी हदयसे इच्छा करता हूँ उसे आपकी
आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूँगा॥ ७८ ॥ है
समस्त संसारकों रचनेवाले परमेश्वर ¦ आपके प्रसन्न
होनेपर (संसारमें) क्या दुर्कभ है? इन्द्र भी आपके
कृपाकयक्षके फलरूपसे ही त्रित्लेकीको भोगता है ॥ ७९ ॥
प्रभो ! मेरी सौतेली माताने गर्वसे अति बढ़-बढ़कर
मुझसे यह कहा धा कि "जो मेरे उदरसे उत्पन्न नहीं है उसके
योग्य यह राजासन नहीं है' | ८० ॥ अतः हे प्रभो आपके
प्रसादसे मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थानको प्राप्त करना
चाहता हैँ जो सम्पूर्ण विश्वका आधारभूत हो ॥ ८१ ॥
श्रीभगवान्. बोले--अरे बालक ! तुने अपने
पूर्वजन्पपें भी मुझे सन्तुष्ट किया था, इसलिये तू जिस
स्थानकी इच्छा करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा
॥ ८२ ॥ पूर्व-जन्ममें तू एक ब्राह्मण था और मुझमें
निरन्तर एकाग्रचित्त रहनेकाला, माता-पिताका सेवक तथा
स्वधर्मका पालन करनेवाला था ॥ ८३ ॥ कालान्तरे एक
राजपुत्र तेय मित्र हो गया । वह अपनी युवावस्थामें सम्पूर्ण
भोगोंसे सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त
था॥८४॥ उसके सङ्गसे उसके दुर्कभ वैभवकों