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५४ ] [ श्रह्मण्ड पुराण

तमोबहुत्वात्ते सर्वे ह्यज्ञानबहुलाः स्मृताः ।

उत्पाद्यग्राहिणश्चेव तेऽज्ञाने ज्ञानमानिनः ॥।३७

अहंकृता अहंमाना अष्टाविणदुद्विधारिमिकाः । कि

एकादरशेंद्रियविधा नवधात्मादयस्तथा ॥॥३८

अष्टौ तु तारकाद्याश्च तेषां शक्तिविधाः स्मृताः ।

अंतः प्रकाशास्ते सवं आवृताश्च बहिः पुनः ॥३९

तिर्यक्‌ स्रोतस उच्यंते वश्यात्मानस्त्रिसंज्ञकाः ।॥४०

तियेक्‌ स्रोतस्तु वे द्वितीयं विश्वमीश्वरः ।

अभिश्रायमथोध तं दृष्ट्वा सर्ग तथाविधम्‌ ।\ ४१

तस्याभिध्यायतो योन्त्यः सात्त्विकः समजायत: ।

ऊद्ध सोतस्तृतीयस्तु तद्र चोद्ध. वं व्यवस्थितम्‌ ॥४२

| अभिष्यान करने बाले उनका अन्य एक तिर्मक्‌ स्रोत हुआ था।

जिससे तिर्यक्‌ विवत्तित होते थे इस कारण से वह फिर तिर्यक्‌ स्रोत कहां

गया था १३६। उस तिर्यक्‌ स्रोत में तमोग,ण की अधिकता थी इस कारण से

वे सभी बहुत अधिक अज्ञान से समन्वित कहे गये हैं। वे सब उत्पाद्य के

ग्राही थे और उस अज्ञान में ही ज्ञान के मानने बाले थे ।३७१ वे अहद्भार-से

युक्त थे और आत्माहद्भारी थे । ऐसे वे अद्ठाईस प्रकार के थे-। इन द्वादश

इन्द्रियों के भेद थे जो कि नेत्र, कान, नासिका, जिह्वा और त्वक्‌ू-ये पाँच

ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और हाथ, पद, गुदा उपस्थ और जिल्ला->ये पाँच कर्मन्द्रियाँ

हैं और एक मन है । तथा नौ प्रकार के आत्मा हैं ३८ और आठ तारकादि

हैं और उनकी शक्ति के प्रकार कहे गये हैं। वे सब अन्दर में प्रकाश वाले हैं

फिर वे बाहिर से समावृत हैं ।३६। तिर्यक्‌ सोत कहे जाया करते हैं और

वश्यात्मा तीन संज्ञा वाले हैं ।४०। तिर्यक्‌ स्नोत का सृजन करके ईश्वर ने

दूसरे विश्व की रचना की थी । इसके अनन्तर उदुभूत अभिप्राय को देखकर

अर्थात्‌ उस प्रकार के सगं का अवलोकन किया. था ।४१। इस तरह से अभि-

ध्यान करने वाले उनके जो अन्त्य सात्विक सर्गं समुत्पन्न हुआ था । तीसरा

तो ऊद्ध वें ख्रोत था और वह्‌ निश्चित रूप से ऊपर की ही ओर व्यवस्थित

था ।४२।

यस्मादृदध. वं न्यवर्तत तदूध्व॑सोतसंज्ञकम्‌ ।

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