$ अथववेद संहिता भाग-२
३३०९. यामश्विनावमिमातां विष्णुर्यस्यां विचक्रमे । इनदरो यां चक्र आत्मनेऽनमित्नौ
शचीपतिः । सा नो भूमिर्वि सृजतां माता पुत्राय मे पयः ॥१० ॥
ने जिस धरा का मापन किया, विष्णुदेव ने जिस पर विभिन्न पराक्रमौ कार्य सम्पन्न किये और
इन्द्रदेव ने जिसे दुष्ट शत्रुओं से विहीन करके अपने नियन्रण में किया था, वह पृथ्वी मातृसत्ता द्वारा पुत्र को दुग्धपान
कराने के समान ही अपनी (हम सभी ) सन्तानो को खाद्य पदार्थ प्रदान करे ॥१० । ।
३३१०. गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवि स्योनमस्तु । बभ्र कृष्णां रोहिणीं
विश्वरूपां शरुवां भूमि पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम् अजीतोऽहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीपहम् ॥
हे धरतीमाता ! आपके हिमाच्छादित पर्वत और वन हमारे लिए सुखदायक हो, वे शत्रुओं से रहित हों ।
विभिन्न रंगों वाली इन्द्रगुप्ता (इन्द्र-रक्षित) पृथ्वी पर मैं श्चय से रहित्, की पराजित न होने वाला ओर अनाहत
होकर प्रतिष्ठित रहूँ ॥११ ॥
३३११. यत् ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्य॑ यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः । तासु नो थेह्माभि नः
पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः । पर्जन्यः पिता स उनः पिपतुं ॥१२ ॥
हे पृथिवौपाता ! जो आपके पध्यभाग और नाभिस्थान हैं तथा आपके शरीर से जो पोषणयुक्त पदार्थ प्रादुर्भूत
होते हैं; उसमें आप हमें प्रतिष्ठित करें और हमें पवित्रता प्रदान करें । यह धरती हमारी माता है और हम सव
उसके पुत्र हैं । पर्जन्य (उत्पादक प्रवाह) हमारे पिता हैं, वे भी हमें पूर्ण करें- सन्तुष्ट करें ॥१२ ॥
३३१२. यस्यां वेदिं परिगृहणन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माण: ।
यस्यां मीयन्ते स्वरवः पृथिव्यामूर्ध्वा: शुक्रा आहुत्याः पुरस्तात् ।
सानो भूमिर्वर्धयद् वर्धमाना ॥ १३ ॥
जिस भूमि पर सभी ओर वेदिकां बनाकर विश्वकर्मादि (विश्च सृजेता अथवा सृजनशील मनुष्य) यज्ञ का
विस्तार करते हैं । जहाँ शुक्र (स्वच्छ या उत्पादक) आहुतियों के पूर्व यज्ञीय युप (आधार) स्थापित किये जति है-
यज्ञीय उदघोष होते हैं । वह वर्धमान भूमि हम सबका विकास करे ॥१३ ॥
[ भूमि को यज्ञीय-परमार्थ कर्मो की वेदी कहा गया है, ओष्ठ यज्ञीय प्रक्रिया के पतने उसके लिए प्रवृत्तियों के आधार
बनाते होते हैं, तभी वे फलित होते है । ]
३३१३. यो नो द्वेषत् पृथिवि यः पृतन्याद् योऽभिदासान्मनसा
यो वधेन । तं नो भूमे रन्धय पूर्वकृत्वरि ॥९४॥
हे मातृभूमे ! जो हमसे द्वेष- भावना रखते है, जो सेना द्वारा हमे पराभूत करने के इच्छुक है, जो मन से हमारा
अनिष्ट चाहते है. जो हमे परतत्रता के बन्धन में जकड़ने की कुचेष्टा करते हैं, जो हमारा संहार करके हमें पीड़ा
पहुँचाना चाहते हैं, ऐसे हमारे शत्रुओं का आप समूल नाश करे ॥१४ ॥
३३१४. त्वज्जातास्त्वयि चरन्ति मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदस्त्वं चतुष्पदः । तवेपे पृथिवि
पञ्च मानवा येभ्यो ज्योतिरमृतं मर्त्येभ्य उद्यन्त्सूर्यो रश्मिभिरातनोति ॥९५ ॥
हे पृधिवीमाता ! आपसे उत्पन्न और आपके ऊपर विचरण करने वाले प्राणियों, दोपायो। चौपायो, सभी का
आप पालन- पोषण करती हैं। सूर्य अपनी अपृतस्वरूपी रश्मियों को जिनके लिए चारों ओर विस्तारित करता
है, ऐसे हम पाँच प्रकार के मनुष्य (विद्वान , शूरवीर, व्यापारी, शिल्पकार और सेवा धर्मरत) आपके ही हैं ॥१५ ॥