Home
← पिछला
अगला →

५० = संक्षिम मार्कण्डेय पुराण *

५९५५५. ५ # 42:26 ५ ५८९.२०५४.६.१५५ ६१०५४६२ ६४.5५ ४ २५५ ११५.५४.१.५५ 567७ 66:5४ ८२७ १५५०५५१५

अभिलाषा क्यों करेंगे ? अतः मेरा जो कुछ भी | प

पुषंय है, उसके द्वारा थे यातनामें पड़े हुए पायो | | 4

जीव नरकसे छुटकारा पा जायं ।

ये पापी जीव भी नरकसे मुक्त हो णये,

पत्र कहता है-- पिताजी ! तदनतर गज विपक्चित्के |

ऊषर फूलोंकी वर्षा हीने लगो और स्श्रय॑ं भगवान्‌ |

विष्णु उन्हें विमादमें विकर दिव्वधाममें ले गये ।*

उस समय मैं तथा और भी जितने पापो जीव थे, |

वे सच नरकयातनासे छूटकर अपने-अपने कर्मफलके

अनुखार्‌ भिन्न पिन योनियोपं चले गये। द्विजश्रेष्ठ । |

इस प्रकार मैने इन नरकौक। बर्णन किया; साथ हो |

पूवंकालमें मैंने जैसा अनुभव किया था, उसके

अनुसार जिस-जिस पापके कारण मनुष्य जिस-| |

जिस नोनिमें जाता है, कह सब भौ बतला दिया।। (~

न>

दत्ता्रेयजीके जन्म-प्रसड्भमें एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूयाजीव्छा चरित्र

पिता बोले-- बेटा! तुमने अत्यन्त हेय संसारके । मुझे क्या करना चाहिये? यह बताओ ।

व्यवस्थित स्वरूपता हर्णन किया, जो धलं-| पुत्र ( सुमति ) ने कहां--पिताजी! यदि आप

यल्रको ते निस्तर आव्यगमनशील और ग्रवाहरूपते , शद्धा छोड़कर मेरे वचर पूर्ण श्रद्धा रखते हैं

अविनाशी है। इस प्रकार पने इसके स्थरूपकों | तो भेरी राय यह हैं कि आप पृहस्थाश्रमका

लीभाँत़ समझ लिया है। ऐसी स्थितिमें अब | परित्याग करके लत्रानप्रस्थके नियमोंका पालन

सापुद्त वाचः भम शक्रश्च त्थं नेतुं रामुपागतों । -भचस्नगस्यदःन्तव्यं कमते पर्थिय गम्काय्‌ ॥

५ उपाच नयामि त्वामहं च्लरग त्तथा सम्नगर्गापितः । विपाननेतदारुद्म सा विल्लावस्य गम्यलीम्‌॥

गजोहाच -“गरके भान धर्म गोज्यनौऽतर रहस्यः , जाहोति भारताः क्रन्दन्ति पमो न च्रजाप्यहसू ५

यदि लान धर्म घ्वंत्य॑वा शफ शचीण्ते | पन दावत्ममाणं तु शुभं तदवक्तुगहंथः॥

भगं उमा आत्क्दिणे वादों यशः च दिये तारका: ¦ यथा व्व चरतो धारा गङ्गां टिकता यथा 4

स्तस्या महाराज यभा चिन््रादधो द्वापाप्‌ । तधा हक्रापि धुण्यस्थ संख्या वैजोपपद्मते॥

अनुकापामिपाश भासक्रेष्पे.्ट. फुर्तक्त : तदेव शतनसाइस सैस्माएुपगर्य तेच ५

द्‌ गच्छे (रत ते वीम तश्चक्तुमपतत्तयम्‌ । एतेदपि पापं नरके श्रनधन्तु स्वकर्यजम्‌॥

राजोत्राच - कथ ठगृत्यं करैरैष्यन्वि : ! शरदि भत्संनिध्यलेषामुत्कपौ नोपव्यघते ॥

शस्गाद सधु सूक्त विधिनानारित त्रिदशाधिप। तैन बु्यन्तु नरकात्‌ पापिनो तनां णतताः॥

स्र उवाच -- एञ्मृद्वत रथ्यं त्वया प मट)पते । एतत नरकातू पश्च विमुछान्‌ प्ापकारिगः ॥

दुभ उवाद --रयोऽपतत्‌ पुष्मवर्शिस्तस्थोपरि महाँगतते।। विसाने ऋषिरोप्लैन स्वर्लोफगनवद्धरि:

{अञ १%॥ ६६--६८, '४०-०-'३८

← पिछला
अगला →