अयख्िज़ो ध्याय: ३३.७
१७४२. अधि न 5 इन्द्रैषां विष्णो सानाम् इता मलन आ । तं प्रलथायं वेनो
ये देवास आ न 5 इडाभिर्वि जानाम म ॥४७ ॥
हे इद्धदेव ! हे विष्णो ! हे परुतो ! हे अश्विनीकुमारो आप सब हमारे सजातीय मनुष्यों के मध्य में आगमन
करें । आप हमारे सब प्रकार से संरक्षक हों और हमें धारण करने वाले हों ॥४७ ॥
| त प्रलवा (७।१२) , अयं वेनः (७।१६) , ये देवासः (७।१९) ओर आ न इभिः (३३ ।३४) , ये चारों मंत्रों के
प्रतीक रूप अंज्ञ हैं। |
१७४३. अग्न5 इन्द्र वरुण मित्र देवाः शर्धः प्र यन्त मारुतोत विष्णो । उभा नासत्या रुद्रो
अथ ग्नाः पूषा भगः सरस्वती जुषन्त ॥४८ ॥
है अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र, मरुतो, और विष्णु आदि देवताओं ! आप हमें सामर्थ्य प्रदान करें । दोनों
अश्विनीकुमार, रुद्र, देवपलियाँ, पूषा, भग और सरस्वती हमारी हवियाँ ग्रहण करें ॥४८ ॥
१७४४. इन्द्राग्नी मित्रावरुणादिति ४ स्व: पृथिवीं दयां मरुतः पर्वताँ? अपः। हुवे विष्णुं
पूषणं ब्रह्मणस्पतिं भगं नु श स सवितारमूतये ॥४९॥
इन्द्राग्नी, मित्रावरुण, अदिति, पृथ्वी, चुलोक, आदित्य, मरुत्. पर्वत समुह. जल, विष्णु, पूषा, ब्रह्मणस्पति, भग
और सर्वप्रेरक सविता आदि देवो का हम आवाहन करते है । वे यहाँ शीघ्र पधार एवं हमारी रक्षा करें ॥४९ ॥
१७४५. अस्मे रुद्रा मेहना पर्वतासो वृत्रहत्ये भरहूतौ सजोषाः । यः श सते स्तुवते धायि
पन्रऽ इन्द्रज्येष्ठा अस्मां रे अवन्तु देवाः ॥५० ॥
जो स्तुति करता है. स्तोत्र का पाठ करता है, अर्जित धन से हवियों को समर्पित करता है, उस यजमान के
लिए और हमारे लिए धन-धान्यादि कौ वर्षा करने वाले रुद्रदेव तथा वुत्रासुर का नाश करने वाले, पर्वतो का हनन
करने वाले, संग्राम में सहायता देने वाते, देवों में वरिष्ठ इद्धदेव आदि हमारी रक्षा करें ॥५०.॥
१७४६. अर्वाञ्चो अद्या भवता यजत्रा आ वो हार्दिं भयमानो व्ययेयम् त्राध्य॑ नो देवा
निजुरो वृकस्य त्राध्वं कर्तादवपदो यजत्राः ॥५१ ॥
` याज्ञिकों की रक्षा करने वाले हे देवो ! आप हमारे समीप आएँ, जिससे हम भयभीत याज्ञिक हृदय में
प्रेम भाव की अनुभूति कर सकें। अत्यन्त हिंसक वृकरूप घोर पापों से हमें मुक्त करें और पापरूप बुरे
कृत्यो से हमें रक्षित करें ॥५१ ॥
९७४७. विश्वे अद्य मरुतो विश्व5 ऊती विश्वे भवन्त्वग्नयः समिद्धाः । विश्च नो देवाऽ अवसा
गमन्तु विश्वमस्तु द्रविणं वाजो अस्मे ॥५२ ॥
आज हमारे इस यज्ञ में समस्त परुद्गण आगमन कर । रुद्र, आदित्य आदि सब देवगण पधार ।
समस्त देवगण हमारी रक्षा के निमित्त आएँ । सपर्ण गार्हपत्यादि अग्निया प्रवद्ध हों और हमें सब प्रकार
का थन-धान्य प्रदान करें ॥५२ ॥
९७४८. विश्च देवाः शृणुतेम ४ हवं मे ये अन्तरिक्षे यऽ उप द्यवि ष्ठ । ये अग्निजिह्वा 5
उत वा यजत्रा 5 आसद्यास्मिन्बहिंषि मादयध्वम् ॥५३ ॥
जो अन्तरिश्च में है जो च्युलोक में हैं, जो चुलोक के समीप हैं और जो (अग्नि मुख वाले) यजन के योग्य है,
ऐसे विश्व के समस्त देवता हमारे आवाहन को स्वीकार कर इस कुश-आसन पर विराजमान हों और हमारे द्वारा
समर्पित हवियों से तृप्त हों ॥५३ ॥