काण्ड २० सूक्त ६८ ५५
करने वाली गौओं से सम्बन्धित तथा मनुष्य मात्र के लिए जो धन सम्पदाएँ हैं, वे सभी युगो- युगों तक हमारे पास
विद्यमान रहें । आप हमें कठिनाई से प्राप्त होने योग्य सम्पदाएँ भी प्रदान करें ॥२ ॥
५४३२. अग्नि होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो जातवेदसं विप्रं न
जातवेदसम् । य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा घृतस्य
विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाजुह्वानस्य सर्पिषः ॥३ ॥
दैवी गुणों से सम्पन्न, श्रेष्ठ कर्म के सम्पादक, जो अग्निदेव देवताओं के समीप जाने वाली ऊर्ध्वगामी
ज्वालाओं से प्रदीप्त और विस्तारयुक्त होकर, अनवरत घृतपान की अभिलाषा करते हैं; उन देव - आवाहनकर्ता,
दानकर्त्ता, सवके आश्रयभूत, अरणिमन्थन से उत्पन्न, शक्ति के पुत्र, सर्वज्ञान- सम्पन्न शाखन्ञाता ओर ब्रह्मनिष्ठ ज्ञानी
के सदृश; अग्निदेव को हम स्वीकार करते हैं ॥३ ॥
५४३३. यज्ञैः संमिश्ला: पृषतीभिर््रष्टिभिर्यामज्छु भ्रासो अञ्जिषु प्रिया उत ।
आसद्या बर्हिर्भरतस्य सूनवः पोत्रादा सोमं पिबता दिवो नरः ॥४ ॥
यज्ञीय कार्य में सहायक, भूमि को सिज्चित करने वाले, शस्यो से सुशोभित, आभूषण प्रेमी, भरण-पोषण में
समर्थ, देवपुत्र तथा नेतृत्व प्रदान करने वाले हे महदूगणो !आप यज्ञ में विराजमान होकर पवित्र सोम का पान करें।
५४३४. आ वक्षि देवाँ इह विप्र यक्षि चोशन् होतर्नि षदा योनिषु त्रिषु ।
प्रति वीहि प्रस्थितं सोम्यं मथु पिबाम्नीश्चात् तव भागस्य तृष्णुहि ॥५ ॥
हे मेधावी अग्निदेव | हमारे इस यज्ञ मे देवगर्णो को सत्कारपूर्वक बुलाएँ । हे होता अग्निदेव ! हमारे यज्ञ
की कामना से आप तीनों लोकों मे प्रतिष्ठित हों शोधित सोमरस को स्वीकार करके इस यज्ञ में सोमपान करें,
समर्पित किये गये भाग से आप तृप्त हों ॥५ ॥
५४३५. एष स्य ते तन्वो नृम्णवर्धनः सह ओजः प्रदिवि बाहोर्हितः ।
तुभ्यं सुतो मधवन् तुभ्यमाभृतस्त्वमस्य ब्राह्मणादा तृपत् पिब ॥६ ॥
है इन्द्रदेव ! आप हमारे यज्ञ मे आरण । होतागण उत्तम स्तोत्र से स्तुति करते हैं, अत: हमारे आवाहन को
सुनकर यज्ञ में बैठकर सुशोभित हों । हे देवो ! याजको दवारा शोधित यह सोमरस दुग्ध मिश्रित है , जो शरीर के
बल की वृद्धि करने वाला है; अत: आप हमारे इस यज्ञ में आकर इस सोमरस का पान करें ॥६ ॥
५४३६. यमू पूर्वमहुवे तमिदं हुवे सेदु हव्यो ददिर्यो नाम पत्यते ।
अध्वर्युभिः प्रस्थितं सोम्यं मधु पोत्रात् सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥७ ॥
जिन अग्निदेव को हमने पहले भी बुलाया धा, उन्हें अब भी आवाहित करते हैं । ये अग्निदेव निश्चित ही
याजकों को धन प्रदान करने वाले तथा सभी के स्वामी है, आवाहन के योग्य ह । इन देव के लिए याजको द्वारा
सोमरस शोधित किया गया है । हे अग्निदेव ! इस पवित्र यज्ञ में ऋतु के अनुरूप सोमरस का पान करें ॥७ ॥
[ सूक्त - ६८ ]
[ ऋषि- मधुच्छन्दा । देवता- इन्र । छत्द- गायत्री । |
५४३७. सुरूपकृलुमृतये सुदुधाभिव गोदुहे । जुहूमसि द्यविद्यवि ॥९॥