३३०
» पुराणे परं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
नि
वसुमतीको धर्मपूर्वक अपने अधीन कर लिया । यह सब
उसके हजार बाहुओंका प्रभाव धा । वह अपनी मायाद्वारा
यज्ञोके माध्यमसे ध्वजावाला रथ उत्पन्न कर लेता था । उसके
प्रभावसे सभी दरीपोमि दस हजार यज्ञ निरन्तर होते रहते थे । उन
यज्ञोकी वेदियां, यूप तथा मण्डप आदि सभी सोनेके रहते थे ।
उनमें प्रचुर दक्षिणा दी जाती थी । विमानमें बैठकर सभी
देवता, गन्धर्य तथा अप्सराएँ पृथ्वीपर आकर यज्ञकी शोभा
बढ़ाते रहते थे। नारद नायका गन्धर्वं उसके यज्ञकी गाथा इस
अकार गाया करता धा--'कार्तवीर्यके पराक्रमकी बात सुननेसे
यह पता चलता है कि संसारका कोई भी राजा उसके समान
यज्ञ, दान तथा तप नहीं कर सकता । सातों द्वीपॉ्में केबल वही
ढाल, तलवार तथा धनुष-बाणवाला है। जैसे बाज पक्षीको
अन्य पक्षी डरसे अपने समीप ही समझते हैं, वैसे ही अन्य
सजा लोग दूरसे ही इससे भय खाते हैं। इसकी सम्पत्ति कभी
नष्ट नहीं होती, इसके राज्यमें न कहीं शोक दिखायी पड़ता है
न कोई क्लान्त ही। यह अपने प्रभावसे पृथ्वीपर धर्मपूर्वक
प्रजाओका पालन करता है।'
भगवान् श्रीकृष्ण पुनः बोले--नराधिप ! कार्तवीर्य
इस पृथ्वीपर पचासी हजार वर्षतक अखण्ड शासन करता
रहा । वह अपने योगबलसे पशुओंका पालक तथा खेतोंका
रक्षक भी था। समयानुसार मेघ बनकर वृष्टि भी करता था।
धनुषकी प्रत्यज्ञाके आघातसे कठोर त्वचायुक्त अपनी सहसो
भुजाओंद्वाय वह सूर्यके समान उद्धासित होता था। उसने
अपनी हजार भुजाओंके बलसे समुद्रकों मथ डाला और
नागलोकमें कर्कोटक आदि नागोकये जीतकर वहाँ भी अपनी
नगरी बसा ली । उसकी भुजाओंद्रारा समुद्रके उद्वेलित होनेसे
पातालवासी महान् असुर भी निश्चेष्ट हो जाते थे। बड़े-बड़े
नाग उसके पराक्रमको देखकर सिर नीचा कर लेते ये । सभी
घनुर्ध्ेको उसने जीत लिया । अपने पराक्रमसे रावणक्ये भी
उसने अपनी माहिष्मती नगरीमे स्वकर बंदी बना रखा था,
जिसे पुलस्त्य ऋषिने छुड़वाया । एक बार भूखे-प्यासे चित्रभानु
(अग्निदेव) को गजा कार्तवीर्यार्जुने समस्त सप्तद्वीपा
वसुन्धरा दानमे दे दिया । इस प्रकार वह कार्तवीर्यार्जुन बड़ा
पराक्रमी एवं गुणवान् य हुआ धा।
योगाचार्य भगवान् अनघ (दत्तत्रेय) से चर प्राप्तकर
कार्तवीर्यार्जुनने पृथ्वीलोकमें इस अनघाष्टमी-्रतको प्रवर्तित
किया। अघको पाप कहा जाता है यह तीन प्रकारका होता
है--कायिक, वाचिकं और मानसिक । यह अनघाष्टमी त्रिविध
पापको नष्ट करनेवाली है, इसलिये इसे अनघा कहते हैं। इस
ब्रतके प्रभावसे अष्टविध देश्य (अणिमा, महिमा, प्राप्ति,
काम्य, लधिमा, ईशित्व, वशित्व तथा सर्वकामावसायिता)
शाप्त कर लेना मानो विनोद ही है ।
महाराज युधिष्ठिरने पूछा--पुण्डरीकाक्ष ! राजा
क्यर्तवीर्यार्जुनके द्वारा प्रवर्तित यह अनघाष्टमी-्रत किन
मन्त्रेके द्वारा, कब और कैसे किया जाता है ? इसे आप
बतलानेकी कृपा करें।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा--राजन् ! इस त्रतकी विधि
इस प्रकार है--मार्गशीर्ष मासके कृष्ण पक्षकी अष्टमीको
कुशॉसे स्त्री-पुरुषकी प्रतिमा बनाकर भूमिपर स्थापित करनी
चाहिये। उनमें एकमे सौम्य एवं शान्तिस्वरूपयुक्त अनघ
(दत्तात्रेय) की तथा दूसरेमें अनघा (लक्ष्मी) की भावना
करनी चाहिये और ऋग्वेदके विष्णुसूक्तसे' पूजा करनी
चाहिये। पूजामें फल, कन्द, श्रगास्की सामग्री, बेर, विविध
धान्य,विविध पुष्पका उपयोग करना चाहिये। दीपक जलाना
चाहिये तथा ब्राह्मणों एवं बन्धु-बान्धरयोको भोजन कराना
चाहिये। इस प्रकार पूजा करनेवाला सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो
जाता है, लक्ष्मी प्राप्त करता है तथा भगवान् विष्णु उसपर
प्रसन्न हो जाते हैं। (अध्याय ५८)
पु
सप्त धामधिः॥
पासे ॥
धर्माणि चारयन् ॥
युज्यः सखा #
चक्षुराततम् ॥
परमे पदम् ॥ (ऋष्येद १।२२ । १६--२१)