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* पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं चिष्णुकथाश्रयम् *
[ संक्षिप्त गरुडपुराणाडु
44.44.44.
"ॐ अपोरा: पितरः सन्तु", गो नो वर्द्धतां०", ' दातारो
जोअभिवर्द्ध॑न्तां० ' इत्यादि मन्त्रका पाठ करे।
श्राद्धकर्ता " सौमनस्यमस्तु" इस वाक्यका उच्चारण करे ।
ब्राह्मण "अस्तु" यह कहें। तदनन्तर दिये गये पिण्डोंके स्थानमें
अर्थ्यपात्रोंमें पवित्रकोंको छोड़ दे। बादमें कुशनिर्भित
पवित्रक लेकर उससे पितरोंके प्रतिनिधि ब्राह्मणोंका स्पर्शकर
* ॐ स्वधां वाचयिष्ये' इस वाक्यसे स्वधावाचतकी आज्ञा
प्राप्त करे। ब्राह्मणोंके द्वारा ॐ वाच्यताम्" इस वचनसे
अनुज्ञात हो श्रादकर्ता ' ॐ पितृपितामहेभ्यो यथानामशर्मभ्यः
सपत्नीकेभ्यः स्वधा उच्यताम्" ऐसा कहे । तदनन्तर ब्राह्मण
"अस्तु स्वधा' का उच्चारण करें।
श्राद्धकर्ता ' अस्तु स्वधा" इस वाक्यसे अनुज्ञात हो " ऊर्जं
बहन्तीरमृत॑० ' इस मन्त्रसे पिण्डके ऊपर जलधारा दे । फिर
* ॐ विश्वेदेवा अस्मिन् यज्े प्रीयन्ताम् ' से देव-ब्राह्मणोंके हाथमें
यव और जल प्रदान करे । ' ॐ प्रीयन्ताम् इस वाक्यसे ब्राह्मणद्वारा
अनुज्ञात होकर " ॐ देवताभ्य:०' मन्त्रका तीन बार जप करे ।
अधोमुख होकर पिण्डपात्रको हिलाकर आचमनपूर्वक
दक्षिणोपवीती ( सव्य) होकर पूर्वाभिपुख ' ॐ अमुकगोत्राय
अमुकदेवशर्मणे०' इत्यादि मन्त्रसे देव - ब्राह्मणको दक्षिणा
दै । तत्यक्षात् पितृ-ब्राह्मणोंकी सेवामे "ॐ पिण्डाः सम्पन्नाः"
यह निवेदन करनेपर “ ॐ सुसम्पन्ना:' इस प्रकार ब्राह्मणसे
अनुज्ञात हो पिण्डके ऊपर श्राद्धकर्ता दुग्धधारा प्रदान
करे । फिर पिष्डको हिलाकर पिण्डक समीप रखे अर्ष्यपात्रको
सीधा स्थापित कर दे । इसके बाद ' ॐ वाजे वाजे०' मन्त्रते
पिण्डके अधिष्ठाता पितरोंका विसर्जन करे । * आपा काजस्य०'
आदि मन््रसे देव तथा 'अभिरम्यताम्' से पितृ-ब्राह्मणका
विसर्जन करके ब्राह्मणसे अनुद्ध प्राप्तकर गौ आदिको
पिण्ड प्रदान करे। इस प्रकार यहाँ श्राद्धविधि बतलायी
गयी । इसका पाठ करनेमात्रसे भौ पापकाः नाश होता है।
किसी भी स्थानर्मे उक्त विधिके अनुसार श्राद्ध करनेपर
पितरॉंकों अक्षय स्वर्ग एवं ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है'।
(अध्याय २१८)
^ व+
नित्यश्राद्ध, वृद्धिश्राद्ध एवं एकोदिष्टश्राद्धका वर्णन
श्रीव्रह्माजीने कहा-अब मैं नित्यश्राद्धका वर्णन
करता हूँ। पूर्वमें जिस तरह श्रद्धविधि कही गयी है, उस
विधिके अनुसार ही नित्यश्राद्ध करें। विशेषता यह है कि
नित्यश्नाद्धमें
अमुकशर्मणां सपत्रीकानां आद्धं सिद्धान्नेन युष्मास्वहं करिष्ये'
ऐसा कहकर श्राद्धका संकल्प करना चाहिये । आसन-
दानादि सभी कार्य पूर्ववत् करे। इस श्राद्धमे विश्वेदेव
वर्जित हैं।
अब मैं वृदिश्रासका विधान यतलाता हं । वृद्धिश्राद्में
भी श्रद्धकी डी भाँति प्रायः सभी कार्य करना चाहिये।
इसके अतिरिक्त जो विशेष है, उसे कहता हूँ। पैदा हुए
पुत्रके मुखको देखनेके पहले वृद्धिश्राद्ध करना चाहिये। यह
श्राद्ध पूर्वांभिमुख और दक्षिणोपवीती (सव्य) होकर यव,
बेर, कुश, देवतीर्थके द्वारा नमस्कार तथा दक्षिणा आदि
उपचारपूर्वक करे।
दक्षिण जानुकों ग्रहण कर विश्वेदेवोंका ब्राह्मणोंमें
"ॐ अपुकगोत्राणामस्मत्पितृपितामहाताम्ू आवाहन करें। आमन्त्रणसे पूर्व ब्राह्मणोंसे अनुज्ञा प्राप्त
करनेके लिये इस प्रकार ब्राह्मणोंसे निवेदन करें-- अपने
कुलके अमुकको उत्पत्तिके शुभ अवसरपर अपने पितृपक्ष
एवं मातृपक्षके पितरोंका श्राद्ध करनेके लिये वसु, सत्य
नामके विश्वेदेवॉका आप लोगॉमें आवाहन कर सिद्ध
अननसे उनका श्राद्ध करना चाहता हूँ। ब्राह्मणोंके द्वारा
अपनेमें विश्वेदेवोंके आबाहनकी आज्ञा मिलनेपर उन
ब्राह्मणोमें बसु, सत्य नामके विश्वेदेवॉँका आवाहन करना
चाहिये। (यहाँ मूल ग्रन्थके अनुसार संस्कृतवाक्योंका ही
प्रयोग होना चाहिये।) इसी प्रकार अन्य ब्राह्म्णं पितरोँका
१-इसत अध्यायसे पार्वणश्राद्ध करनेकौ प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिये। श्राद्धकों विधि, सम्पूर्ण मन्त्र एवं क्रमका ज्ञान श्राद्धकी पद्धतियोंसे करना
चाहिये।
२-इस श्राद्धको माङ्गलिक, आभ्वुदधिक तथा नान्दीमुखक्रद्ध भौ कहते हैं।
३-ज्तु जद्गाको कहते ह । वायें जद्देको मोड़कर और दाहिने जद्धेको ऊपरकर बैठनेसे दाहिने जङ्खेपर दाहिना हाथ होता है । यहाँ इमौ
आसत्से तात्पर्य है ।