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श्रीविष्णुपुराण

[ अ०७

सर्पजातिरियं क्रूरा यस्यां जातोउस्मि केशव ।

तत्स्वभावोऽयमन्रास्ति नापराधो ममाच्युत ॥ ७९

सृज्यते भवता सर्व तथा संदहियते जगत्‌ ।

जातिरूपसवभावाश्च सृज्यन्ते सृजता त्वया ॥ ७२

यथाहं भवता सुष्टो जात्या रूपेण चेश्वर ।

स्वभावेन च संयुक्तस्तथेदे चेष्टितं पया ॥ ७३

यह्यन्यथा प्रवर्तेयं देवदेव ततो मयि ।

न्याय्यो दण्डनिपातो वै तवैव बचने यथा ॥ ७४

तथाप्यज्ञे जगत्स्वामिन्दण्डं पातितवान्पयि ।

स श्लाध्योऽयं परो दण्डस्त्वत्तो मे नान्यतो वरः ॥ ७५

हतवीर्यो हतविषो दमितोऽहं त्वयाच्युत ।

जीचितं दीयतामेकमाज्ञापय करोमि किम्‌ ॥ ७६

श्रीभगवानुकाच

नात्र स्थेयं त्वया सर्प कदाचिष्टमुनाजले ।

सपुत्रपरिवारस्त्व॑ सखमुद्रसलिलं व्रज ॥ ७७

मत्यदानि च ते सर्प दृष्टा मूर्धनि सागरे ।

गरुडः पन्नगरिपुस्त्वयि न प्रहरिष्यति ॥ ७८

श्रीपरासर उवाच ८

इत्युक्तवा सर्पराजं तं मुमोच भगवान्हरिः ।

प्रणप्य सोऽपि कृष्णाय जगाम पयसां निधिम्‌ ॥ ७९

परयतं सर्वभूतानां सभृत्यसुतवान्धवः ।

समस्तभार्यासिहितः परित्यज्य स्वकं इदम्‌ ॥ ८०

गते सर्पे परि्ज्य मृतं पुनरिवागतम्‌ ।

गोपा मूर्द्धनि हार्देन तिषिचुर्त्रजैर्जलैः ॥ ८१

कुष्णामङ्धिष्टकर्माणमन्ये विस्मितचेतसः ।

तुष्ठुवुर्मुदिता गोपा दृष्ठा शिवजला नदीम्‌ ॥ ८२

गीयमानः स गोपीभिश्चरितैस्साधुचेष्टितैः ।

संस्तुयमानो गोपैश्च कृष्णो व्रजमुपागमत्‌ ॥ ८३

सर्वथा असमर्थ हूँ, मेरी चित्तवृत्ति तो केवल आपकी

कृपाकी ओर ही लगी हुई है, अतः आप मुझपर असन

होइये ॥ ७० ॥ हे कदा ! मेरा जिसमें जन्म हुआ है बह

सर्पजाति अत्यन्त क्रूर होती है, यह मेरा जातीय स्वभाव है ।

है अच्युत ! इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है ॥ ७५ ॥ इस

सम्पूर्ण जगत॒की रचना और संहार आप हो करते हैं।

सैसारकी रचनाके साथ उसके जाति, रूप और स्वरभावोंको

भी आप ही बनाते हैं ॥ ७२ ॥

हे ईश्वर ! आपने मुझे जाति, रूप और स्वभावसे युक्त

करके जैसा बनाया है उसीके अनुसार मैंने यह चेष्ठा भी को

है॥ ७३ ॥ है देवदेव ! यदि मेरा आचरण विपरीत हो ठन

तो अवश्य आपके कथनानुसार मुझे दण्ड देना उचित

है॥ ७४ ॥ तथापि हे जगत्स्वापिन्‌ ! आपने मुझ अज्ञको जो

दण्ड दिया है बह आपसे मिला हुआ दण्ड पेंरे लिये कहीं

अच्छ है, किन्तु दूसरेक् वर भी अच्छा नहीं ॥ ७५ ॥ हे

अच्युत ! आपने मेरे पुरुषार्थ और विषको नष्ट करके मेय

भली प्रकार मानमर्दन कर दिया है । अब केवल मुझे प्राणदान

दीजिये और आज्ञा कोजिये कि मैं क्या करूँ 7 ॥ ७६ ॥

श्रीभगवान्‌ बोले--है सर्च! अब तुझे इस

यमुनाजलमें नहीं रहना चाहिये । तु दीप्र ही अपने पुत्र और

परिवारके सहित खपुद्रके जलमें चला जा ॥ ७७ ॥ तेरे

मस्तकपर मेरे चरण चिह्ोंको देखकर समुद्रमें रठते हुए भी

सर्पोंका शत्रु गरुड तुझपर प्रहार नहीं करेगा ॥ ७८ ॥

श्रीपराशरजी बोले--सर्पराज कालियसे ऐसा कह

भगवान्‌ हरनि उसे छोड़ दिया और वह उन्हें प्रणाम करके

समस्त प्राणियोंके देखते-देखते अपने सेवक, पुत्र, वन्धु

और स्वियोकि सहित अपने उस कुण्डव ललोडकर समुद्रकों चला

गया ॥ ७९-८० ॥ सर्पके चर जानेपर गोपगण, ररे दूए

मृत पुरुषके समान कृष्णचद्रको आिङ्गनकर प्रोतिपूर्वक

उनके मस्तकको नेत्रजछसे भिगोने लगे ॥ ८१॥ कुछ

अन्य गोपगण यमुनाको स्वच्छ जलवाली देख प्रसन्न होकर

लीलाबिहारी विस्मितचित्तमे स्तुति करने

कगौ ॥ ८२ ॥ तदनन्तर अपने उत्तम चरित्रोंके कारण

गोपि्योसे गीयमान और गोपोंसे प्रशंसित होते हुए

कृष्णचन्द्र व्रजे चले आये ॥ ८३ ॥

8 न

इति श्रीविष्णुपुराणे पञचमेऽहो सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

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