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है, उसके शत्रु हर्षित होते हैं। जो मर गया, नष्ट
हो गया, वह पुनः लौट आये, यह सम्भव नहीं
है। चर और अचर प्राणियोंसे सम्पन्न इन तीनों
लोकोंमें मैं किसीको अमर नहीं देखता। देवता,
दानव, गन्धर्व-मनुष्य, मृग-ये सभी कालके ही
अधीन है । तुम्हारा पुत्र ' श्रीमान्" निश्चय ही एक
महान् आत्मा था। उसने पूरे दस हजार वषोतक
अत्यन्त कठिन तपस्याकर परम दिव्य गति प्राप्त
की है। इन सब बातोंको जानकर तुम्हें सोच नहीं
करना चाहिये।'
नारदजीके इस प्रकार कहनेपर निमिने उनके
चरणोंमें सिर झुकाकर प्रणाम किया। किंतु फिर
भी उनका मन पूरा शान्त न हुआ। वे बारम्बार
दीर्घ साँस ले रहे थे और उनका हृदय करुणासे
व्याप्त था। वे लज्जित होकर कुछ डरते हुए-से
गद्गदवाणीमें बोले--'मुनिवर! आप अवश्य ही
महान् धर्मज्ञानी पुरुष हैं। आपने अपनी मधुर
बाणीद्वारा मेरे हदयको शान्त कर दिया। फिर भी
प्रणय, सौहार्द अथवा स्नेहके कारण मैं कुछ
कहना चाहता हूँ, आप उसे सुननेकी कृपा
कीजिये। मेरा चित्त एवं हृदय इस पुत्रशोकसे
व्याकुल है। अतएव मैं उसके लिये संकल्प करके
अपसव्य होकर श्राद्ध, तर्पण आदि क्रियाँ कर
चुका हूं । साथ ही सात ब्राह्मणोको अन एवं फल
आदिसे तृप्त किया है तथा जमीनपर कुशा
बिछाकर पिण्ड अर्पण किये है । द्विजवर! पर
अनार्य पुरुष ही ऐसा कर्म करता है, इससे स्वर्ग
अथवा कीर्ति उपलब्ध नहीं हो सकती। मेरी
बुद्धि मारी गयी थी। मैं कौन हूँ--यह मुझे स्मरण
न था। अज्ञानसे मोहित होनेके कारण यह काम
मैं कर यैठा। पहलेके किसी भी देवता-ऋषियोने
+ संक्षिप्त श्रीवराहपुराण *
[ अध्याय १८७
ऐसा काम नहीं किया है। प्रभो! मैं ऊहापोहमें
पड़ा हूँ कि कहीं मुझे कोई प्रत्यवाय या शाप न
लग जाय।'
नारदजी बोले--'द्विजश्रेष्ठ! तुम्हें भय नहीं
करना चाहिये। मेरे देखनेमें यह अधर्म नहीं, किंतु
परम धर्म है। इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये।
अब तुम अपने पिताकी शरणमे जाओ।'
नारदजीके इस प्रकार कहनेपर निमिने अपने
पिताका मन, वाणी और कर्मसे ध्यानपूर्वक शरण
ग्रहण किया और उनके पिता भी उसी समय
उनके सामने उपस्थित हो गये। उन्होंने निमिको
पुत्र-शोकसे संतप्त देखकर उन्हें कभी व्यर्थ न
होनेवाले अभीष्ट बचनोंद्वारा आश्वासन देना आरम्भ
किया-' निमे! तुम्हारे द्वारा जो संकल्पित कार्य
हुआ है, तपोधन! यह “पितृयज्ञ' है। स्वयं ब्रह्माने
इसका नाम “पितृयज्ञ' रखा है। तभीसे यह धर्म
"व्रत" एवं * क्रतु" नामसे अभिहित होता आया है।
बहुत पहले स्वयंभू ब्रह्मने भी इसका आचरण
किया था। उस समय विधिके उत्तम जानकार
ब्रह्मान जो यज्ञ किया था, उसमें श्राद्धकर्मकी
विधि ओर प्रेत-कर्मका विधान है। उसे उन्होंने
नारदको भी सुनाया था।
भगवान् वराह कहते हैँ -- सुन्दरि! अब मैं
ब्रहमाद्वारा उपदिष्ट उस श्राद्धविधिका भलीभाँति
प्रतिपादन करता हूँ, सुनो। इससे ज्ञात हो जायगा
कि पुत्र पिताके लिये किस प्रकार श्राद्ध करता
है। जितने प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबकी
समयानुसार मृत्यु हो जाती है। चींटी आदिसे
लेकर जितने भी जन्तु हैं, उनमें किसीको मँ
अमर नहीं देखता; क्योकि जिसका जन्म होता है,
उसकी मृत्यु और जो मरता है, उसका जन्म