द रीनिष्ुषुराणा [ओ ९३ श्रीनिष्णुपुराण [ आ १९३
सत्न यत्र समं त्वस्या भूमेरासीदद्धिजोत्तम ।
तत्र तत्र प्रजाः सर्वा निवासं समरोचयन् ॥ ८५
आहारः फलमूलानि प्रजानामभवत्तदा ।
कृच्छ्रेण महता सोऽपि प्रणषटास्वोषधीषु वै ।। ८६
ख कल्पयित्वा वत्सं तु मनु सायस्भुवं प्रभुम् ।
स्वपाणौ पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवीं पृथुः ।
सस्यजातानि सर्वाणि प्रजानां हितकाम्यया ॥ ८७
तेनान्नेन प्रजास्तात वर्तन्तेद्यापि नित्यक्षः ॥ ८८
तत्तत्पात्रमुपादाय तत्तददुग्ध॑मुने
वत्सदोग्धृविशेषाश्र तेषां तद्योनयो3भवन् ॥ ९१
सैषा धात्री विधात्री च धारिणी पोषणी तथा ।
सर्वस्य तु ततः पृथ्वी विष्णुपादतत्तेद्धवा ॥ ९२
एवं प्रभावस्स पृथुः पुत्रो वेनस्य वीर्यवान् ।
जज्ञे महीपतिः पूर्वो राजाभूजनरज्ञनात् ॥ ९३
य इदे जन्म वैन्यस्य पृथोः संकीर्तयेन्नरः ।
न तस्य दुष्कृतं किल्लित्फलदायि प्रजायते ॥ ९४
दुस्स्प्रोपशमं॑नृणां भ्रृण्वतामेतदुत्तमम् ।
पृथोर्ज्य प्रभावश्च करोति सततं नृणाम् ॥ ९५
हे द्विजोत्तम ! जहाँ-जहाँ भूमि समतल थी वहीं-वहींपर
प्रजाने निवास करना पसन्द किया ॥ ८५ ॥ उस समयतक
प्रजाका आहार केवल फल मूल्मदि ही था; यह भी
ओषधियेंकि नष्ट हो जानेसे बड़ा दुर्लभ हो गया था ॥ ८६ ॥
तब पृथिवीपति पृथुने स्वायम्मुबमनुको बछड़ा
बनाकर अपने हाथमे ही पृथिवीसे फ्रजाके हितके लिये
समस्ते धान्यो दुहा । दै ताते ! उसी अन्नके आधारसे
अब भी खदा प्रजा जीवित रहती है ॥ ८७-८८ ॥ महाराज
पृथु प्ाणदान करनेके कारण भूमिके पिता हुए,” इससे
उस सर्वभूतधारिणीको "पृथिवी" नाम मिक्त ॥ ८९ ॥
है मुने! फिर देवता, मुनि, दैत्य, राक्षस, पर्वत,
गन्धर्व, सर्प, यक्ष ओर पितृगण आदिने अपने-अपने
पात्रोमे अपना अभिमत दूध दुहा तथा दुहनेवालेके
अनुसार उनके सजातीय ही दोग्धा और वत्स आदि हुए
॥ ९०-९१॥ इसीलिये विष्णुभगवानके चरणोंसे प्रकट
हुई यह पृथिवी ही सक्को जन्म देनेवाली, यनानेवाली
तथा धारण और पोषण करनेवाली है ॥ ९२ ॥ इस प्रकार
पूर्वकालमें वेनके पुत्र महाराज पृथु ऐसे प्रभावझाल्री
और वीर्ययान् हए । प्रजाका रन करनेके कारण वे
'राजा' कहलाये ॥ ९३ ॥
जो मनुष्य महाराज पृथुके इस चरित्रका कीर्तन करता
है उसका कोई भी दुष्कर्म फरूदायी नहीं होता ॥ ९४ ॥
पृथुका यह अत्युत्तम जन्म-कृत्तानन और उनका प्रभाव
अपने सुननेवाले पुरुषोकि दुःस्वप्नॉक्ये सर्वदा दात कर देता
है॥ ९५॥
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इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथर्मेऽदो त्रयोददोऽध्यायः ॥ १३ ॥
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* जन्प देनेवाला, यज्ञोपवीत करानेवास्पर, अन्नदाता, भयसे रक्षा करनेबात्म तथा जो विद्यादान करे- ये पाँचों पिता
माने गये हैं; जैसे कडा है--
कनकथोपनेता च गश्च विद्या: प्रगच्छति । अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः ॥