१९ अश्वे संहिता भाग-२
३३६३. नडमा रोह न ते अत्र लोक इदं सीसं भागधेयं त एहि।
यो गोषु यक्ष्मः पुरुषेषु यक्षयस्तेन त्वं साकमधराङ् परेहि ॥१ ॥
हे ( क्रव्याद् ) अग्ने ! आप नड (सरकंडे) पर आरोहण करे । आपके लिए यहाँ स्थान नहीं है, वह सीसा
तुम्हारा भाग है, इस पर आप आएँ । जो यक्ष्मारोग गौओं और मनुष्यों में है, आप उस रोगसहित नीचे के दारो से
यहाँ से दूर चली जाएँ ॥१ ॥
३३६४. अघशंसदुःशंसाभ्यां करेणानुकरेण च ।
यक्ष्मं च सर्वं तेनेतो मृत्युंच निरजामसि ॥२ ॥
सभी रोग पापियो और दुष्टौ के साथ यहाँ से दूर चले जाएँ । कर (क्रिया) और अनुकः (सहायक क्रिया) से
यक्ष्माेग को अलग करता हूँ , उसके द्वारा मृत्यु को भी दूर भगाता हूँ ॥२ ॥
३३६५. निरितो मृत्यु निऋतिं निररातिमजामसि ।
यो नो ष्टि तमद्धयग्ने अक्रव्याद् यम् द्विष्मस्तमु ते प्र सुवामसि ॥२ ॥
हे (क्रव्याद्) अग्निदेव ! हम यहाँ से पाप देवता निरति और मृत्यु को दूर करते हैं । जो हमारे साथ विद्वेष
करते हैं, उनका आप भक्षण करे । जिनसे हम द्वेष रखते है, उनकी ओर हम आपको प्रित करते हैं ॥३ ॥
३३६६. यद्यग्निः क्रव्याद् यदि वा व्याप्र इमं गोष्ठं प्रविवेशान्योकाः ।
तं माषाज्यं कृत्वा प्र हिणोमि दूरं स गच्छत्वप्सुषदोऽप्यग्नीन् ॥४ ॥
यदि प्रेतदाहक (क्रव्याद्) अग्नि और हिंसक बाघ अन्यत्र कहौ स्थान न पाकर इस गोशाला मे प्रवेश करे,
तो उसे हम 'माषाज्य ' विधि से दूर करते है, वह जल में वास करने वाली अग्नियों के समीप गमन करे ॥४ ॥
३३६७. यत् त्वा क्रुद्धः प्रचक्रुर्मन्युना पुरुषे मृते ।
सुकल्पमग्ने तत् त्वया पुनस्त्वोदीपयामसि ॥५ ॥
किसी मनुष्य की मृत्यु पर उसके दाह संस्कार के लिए प्राणियों ने क्रोध से आप (क्रव्याद् अग्नि) को प्रदीप्त
किया, अब वह कार्य (शवदाह) सम्पन्न होने पर आपको, आपसे ही प्रदीप्त करते हैं ॥५ ॥
३३६८. पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसवः पुनर्ब्रह्मा बसुनीतिरग्ने ।
पुनस्त्वा ब्रह्मणस्पतिराधाद् दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥६ ॥
हे अग्निदेव ! आदित्य, रुद्र, वसु. धनप्रदाता ब्रह्मा और ब्रह्मणस्पति ने आपको सौ वर्ष कौ दीर्घायु प्राप्त
करने के लिए पुनः प्रतिष्ठित किया था ॥६ ॥
३३६९. यो अग्निः क्रव्यात् प्रविवेश नो गृहमिमं पश्यन्नितरं जातवेदसम् ।
तं हरामि पितृयज्ञाय दूरं स घर्मपिन्धां परमे सधस्थे ॥७ ॥
जो मांसभक्षी (क्रव्याद्) अग्निदेव दूस जातवेदा अग्नि को देखते हुए हमारे घर में प्रविष्ट हुए हैं, उन्हे पितृयज्ञ
के निमित्ते हम दूर ले जाते हैं, वे परम व्योम में घर्म (उष्णता) की वृद्धि करें ॥७ ॥
३३७०. क्रव्यादमग्निं प्र हिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः ।
इहायमितरो जातवेदा देवो देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन् ॥८ ॥