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६२ ।| [ ब्रह्माण्ड पुराण

तेषां ते यांति कर्माणि प्राक्‌ सृष्टानि स्वयंभुवा ।

तान्येव प्रतिपद्यंते सृज्यमानाः पुनः पुनः ॥६२

हिताहितं मृदुक्र.रे धमधिमौ कृताकृते |

तेषामेव प्रथक्‌ सूतमविभक्तः त्रयं विदुः ।।&९३

एतदेवं च नैवं च न चोभे नानुभे तथा ।

कर्म स्वविषयं प्राहुः सत्वस्थाः समदशिनः ।१६४

नामात्मपञ्चभूतानां कृतानां च प्रपञ्न्चताम्‌ ।

दिव शब्देन पञ्चैते निर्मने स महेश्वरः ॥६५

अआर्षाणि चेव नामानि याश्च देवेषु सृष्टयः ।

जवेर्या न प्रसूयन्ते पनस्तेभ्यो दधत्प्रभः ।।€ ६

इत्येवं कारणाद्‌भूतो लोकंसगंः स्वयंभुवः ।

महदाद्या विशेषान्ता विकाराः प्राकृताः स्वयम्‌ । ६७

चन्द्रसूयं प्रभो लोको ग्रहनक्त्र मण्डितः ।

नदीभिश्च समुद्रैश्च पवेत ष्व सहस्रणः € ,

वे सब उनके कर्मो को प्राप्न होते हैं जिनका कि स्वयद्‌म्भने पूर्व में ही

सृजन कर दिया था । बार-बार सुजन को प्राप्त होते हुए उन्हीं कर्मोको

प्रतिपन्न हुआ करते हैं ।६२। हिल ओर अहिसा वाले, मृदु और क्र, र-धर्म

और अधमं ओर कृत तथा अकृत उनके ही पृथक उरपन्न हुए थे । यह अवि-

भक्त तीन जान लीजिए ।६३। यह इस प्रकार से है ओर इस श्रकार से नहीं

है-दोनो ही नहीं हैं और दोनों हैं । सत्व में स्थित समदर्शी अर्थात्‌ सबको

एक ही समान देखने वाले अपने विषय को कमं कहते हैं ।&४। नामात्म पञ्च

भूतो की और कुतों को प्रपञ्चता को बनाया था । उन महेश्वर ने दिन

शब्द से ये ही पाँच हैं जिसका निर्माण किया था ।€५॥ देवों में जो सूष्टियाँ

हैं और आंध नाम हैं शवंरी में प्रसूत नहीं होते हैं---फिर प्रभु ने उनके लिए

धारण किया था ।€६॥ यह्‌ इसी रीति से स्वयम्भू का कारण से लोकों का

समगं हुआ था । मह्त्‌ जिनके आदि में होने वाला है तथा विशेष के अन्त

पर्यन्त विक्रार स्वयं प्राकृत हैं ।९७। चन्द्रमा और सूयं की प्रभा वाला लोक

जो ग्रहों ओर नक्षत्रों से मण्डित है । जहाँ बहुत नदियां हैं--समुद्र है ओर

सहस्रो पवंत हैं>इन सबसे मण्डित है ।६८।

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