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है अशर्ववेद संहिता भाग-१

दिशाएँ तथा उपदिशाएँ आपको पुकारे । आप यहाँ (अपने क्षेत्र में) सबके लिए वन्दनीय बने ॥१ ॥

३८०. त्वां विशो वृणतां राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पञ्च देवी:।

वर्ष्मन्‌ राष्टूस्य ककुदि श्रयस्व ततो न उग्रो वि भजा वसूनि ॥२॥

हे तेजस्विन्‌ !ये प्रजाएँ आपको शासन का संचालन करने के लिए स्वीकार करें तथा पाँचों दिव्य दिशाएँ

आपकी सेवा करें ।आप राष्ट्र के श्रेष्ठ पद पर आसीन हों और उग्रवीर होकर हमें योग्यतानुसार ऐश्वर्य प्रदान करें ॥२

३८१. अच्छ त्वा यन्तु हविनः सजाता अम्निर्दूतों अजिर: सं चरातै।

जायाः पुत्राः सुमनसो भवन्तु बहुं बलिं प्रति पश्यासा उग्रः ॥३ ॥

हे तेजस्विन्‌ ! हवन करने वाले या युलाने वाले सजातीय जन आपके अनुकूल रहें । दूतरूप परे अग्निदेव

तीवता से संचरित हों । ख्रो-बच्चे श्रेष्ठ मन वाले हो । आप उग्रवीर होकर विभिन्न उपहारों को देखें (प्राप्त करें) ॥ ३ ॥

३८२. अश्विना त्वाग्रे मित्रावरुणोभा विश्वे देवा परुतस्त्वा ह्यन्तु।

अधा मनो वसुदेयाय कृणुष्व ततो न उग्रो वि भजा वसूनि ॥४ ॥

हे तेजस्विन्‌ ! मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वेदेवा तथा मरूदूगण आपको बुलाए । आप अपने मन की

धनदान में लगाएँ और प्रचण्डवीर होकर हमको भो यथायोग्य ऐश्रर्य प्रदान करें ॥४ ॥

३८३. आ प्र द्रव परमस्याः परावतः शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्‌।

तदयं राजा वरुणस्तथाह स त्वायमह्वत्‌ स उपेदमेहि ॥५ ॥

है तेजस्विन्‌ ! आप दूर देश से भौ द्रुतगति से यहाँ पधारे । द्यावा-पृथिवी आपके लिए कल्याणकारी हों ।

राजा वरुण भी आपका आवाहन करते है इसलिए आप आएँ और इसे प्राप्त करे ॥५ ॥

३८४. इन्र मनुष्याः परेहि सं हाज्ञास्था वरुणैः संविदानः ।

स त्वायमह्वत्‌ स्वे सधस्थे स देवान्‌ यक्षत्‌ स उ कल्पयाद्‌ विशः ॥६ ॥

हे शासकों के शासक (इनद्रदेव) ! आप मनुष्यों के समीप पधारें । वरुणदेव से सुकन क्त होकर आप जाने गए

हैं । अत: इन प्रत्येक धारणकर्त्ताओं ने आपको अपने स्थान पर बुलाया है । ऐसे आप, का यजन करते

हुए प्रजाओं को अपने-अपने कर्तव्य पे नियोजित करें ॥६ ॥

३८५. पथ्या रेवतीर्बहुधा विरूपाः सर्वाः सङ्गत्य वरीयस्ते अक्रन्‌।

तास्त्वा सर्वाः संविदाना हयन्तु दशमीमुग्रः सुमना वशेह ॥७ ॥

हे तेजस्विन्‌ ! विभूति-सम्पन्न, मार्ग पर (लक्ष्य की ओर) चलने वालो, विविधरूप वाली प्रजाओं > संयुक्तरूप

से आपके लिए यह वरणीय (पद) बनाया है । वे सब आपको एक मत होकर बुलाएँ । आप उग्रवीर एवं श्रेष्ठ मन

वाले होकर दसमी (चरमावस्था) को अपने अधीन करें ॥७ ॥

[५ - राजा और राजकृत सूक्त ]

[ऋषि - अथर्वा । देवता - सोम या पर्णमंणि । छन्द - अनुष्टपू, १ पुरो:नुष्टप्त्रिष्टपू ४ शर्ट, ८

विराट्उरोबृहती । ]

इस सूक्त में पर्णपणि का विवरण है । कोशों पे पर्ण का अर्थ 'फ्लाश' दिया गया है, इस आधार पर कई आचार्यो ने

पर्णपणि को पलाशमणि पाना है। इधर शव०ब्रा० (६.५.१.१) के अनुसार सोमो वै पर्णः (सोप ही पर्ण है) तथा तै०ब्रा०

(१.२-१.६) में यह 'पर्ण' सोमपर्ण से ही बना हुआ कल्ल गया है। इस आधार पर पर्णमणि को सोपपणि वड सकते हैं। ठेद के

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