५८. * संक्षिप्त शिवपुराण
क्र
नैन ४६.५.८१.१.५०.७.१.५.०.४.४४.४ अ ॐ म 2 नत ॥ 3 ४ ५ 9 9.9 4 4 0 भ तै भतम 5 म निम 9 99.9.99 9 43.4.23
कल्ासमें ्राणिर्योका संहार करनेवाले
है । अहिंसालोकका आश्रय लेकर जो ज्ञान-
कैलास नामक नगर शोभा पाता है, उसमें
कार्यभूत महेश्वर सबको अदुष्य करके रहते
हैं। अहिसात्मेकके अन्तम कारूचक्रकी
स्थिति हैं। यहाँतक महेश्वरके विरार-
स्वसूपका वर्णन किय्या गया। बहींतक
लोकॉका तिरोधान अध्या त्वय होता है।
उससे नीचे कर्मोंका भोग है और उससे ऊपर
ज्ञानका भोग । उसके नीचे कर्मपाया है और
उसके ऊपर ज्ञानमाया ॥
(अब मैं कर्ममाया और ज्ञानमायाका
तात्पर्य बता रहा हूँ--) “मा” का अर्थ है
छक्ष्मी । उससे कर्मभोग यात--आप्त होता
है। इसलिये यह माया अथवा कर्ममाया
कहलाती है। इसी तरह मा अर्थात् लक्ष्मीसे
ज्ञानभोग चात अर्थात् आप्त होता है।
इसलिये उसे माया या ज्ञानमाया कहा गया
है। उपर्युक्त सीमासे नीचे नश्वरं भोग है और
ऊपर नित्य भोग । उससे नीचे ही तिरोधान
अथवा क्य है, ऊपर नहीं। कहास नीचे ही
कर्ममय पाश्ोंद्वारा' बन्धन होता है। ऊपर
खन्धनका सदा अभाव है। उससे नीचे ही
जीव सकाम कमॉका अनुसरण करते
विभिन्न लोको और योनियोमें चक्कर
हैं। उससे ऊपरके ल्लोके निष्काम कर्मका
ही भोग बताया गया है। बिन्दुपूजामें तत्पर
रहनेवाले उपासक वहाँसे नीचेके ल्ोकॉमें ही
घूमते हैं। उसके ऊपर तो निष्कामभावसे
पूजा करनेवाले उपासक ही
जाते हैं । जो एकमात्र शिवकी ही उपासनायें
तत्पर हैं, वे उससे ऊपरके रोकोमे जाते हैं ।
वहाँसे नीचे जीव्रकोटि है और ऊपर
ईश्वरकोरि । नीचे संसारी जीव रहते हैं और
ऊपर मुक्त पुरुष। नीचे कर्मलोक है और
ऊपर ज्ञानल्लोक । ऊपर मद और अहँकारका
नाश करनेवाली नग्नता है, यहाँ जन्मजनित
तिरोधान नहीं है। उसका निवारण किये
विना वहाँ किसीका प्रवेदा सष्पव नहीं है।
इस प्रकार तिरोधानका निवारण करनेसे
वहाँ ज्ञानशब्दका अर्थ ही प्रकाशित होता है ।
आधिभौतिक पूजा करनेवाले लोग उससे
नीचेके लोकते ही चक्कर काटते हैं। जो
आध्यात्मिक उपासना करनेवाले हैं, वे ही
उससे ऊपरको जाते हैं।
जो सत्य-अहिंसा आदि धर्षति युक्त हो
भ्रगवान् शिवके पूजनमें तत्पर रहते हैं, वे
कालखक्रकों पार कर जाते हैं। काल-
चक्रेश्वस्की सीमातक जो विराट् पहेश्वरलोक
बताया गया है, उससे ऊपर बृषभके
आकारमें धर्मकी स्थिति है। वह ब्रह्मचर्यका
मूर्तिमान् रूप हैं। उसके सत्य, शौच, अहिंसा
और दया--ये चार पाद् हैं। चह साक्षात्
झिवलोकके ट्वास्पर खड़ा टै । क्षमा उसके
सींग है, छम कान है, चह वेदध्वनिरूपो
शब्दसे विभूषित है। आस्तिकता उसके दोनों
नेत्र है, विश्वास ही उसकी श्रेष्ठ बुद्धि एवं मन
है। क्रिया आदि धर्मरूपी जो वृषभ हैं, वे
कारण आदिमे स्थित हैं--ऐसा जानना
ब्रह्मा
विष्णु और महेश्वरकी जो अपनी-अपनी
आयु है, उसीको दिन कहते हैं। जहाँ
श्र्परूपी वृषभकी स्थिति है, उससे ऊपर न
दिन है न रात्रि। वहाँ जन्प-मरण आदि भी
नहीं हैं। वहाँ फिरसे कारणस्वरूप ब्रह्माके