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उत्तराखिके विंशोऽध्यायः २०.३

॥द्वितीय:खण्ड: ॥

१७८०. अग्ने विवस्वदुषसश्चत्रं राधो अमर्त्य ।

आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवां उषर्बुधः ॥१ ॥

हे अविनाशी सर्वज्ञाता अग्निदेव ! आप देवी उषा से यजमान के लिए अनेक प्रकार की धन सम्पदा लेकर

आएँ ओर उषाकाल मे विशेष चैतन्य देवों को भी यज्ञ में लाने की कृपा करें ॥१ ॥

१७८१. जुष्टो हि दूतो असि हव्यवाहनोऽग्ने रथीरध्वराणाम्‌ ।

सजूरश्विभ्यामुषसा सुवीर्यमस्मे धेहि श्रवो वृहत्‌ ॥२ ॥

हे अग्निदेव ! आप सेवा के योग्य देवों तक हवि पहुँचाने वाले दूत और यज्ञ में देवों को लाने वाले रथ के

समान है । आप अश्विनीकुमारो और देवी उषा के साथ हमें श्रेष्ठ पराक्रमी एवं यशस्वी बनाएँ ॥२ ॥

१७८२. विशं दद्राणं समने बहूनां युवानं सन्तं पलितो जगार ।

देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार स हा: समान ॥३॥

अनेक महान्‌ कार्य कर सकने में समर्थ, संग्राम में बहुत से शत्रुओं को नष्ट करने में समर्थ, तरुण व्यक्ति को

भी वृद्धावस्था खा जाती है। हे पुरुषो !देवो के अधिपति इन्द्रदेव के महत्त्व से परिपूर्ण इस कार्य को

देखो ।वृद्धावस्था प्राप्त जो पुरुष मृत्यु पाता है वह कल फिस[पुनर्जन्म के सिद्धान्तानुसार) उत्पन्न हो जाता है ॥३ ॥

१७८३. शाक्मना शाको अरूणः सुपर्णं आ यो पहः शूरः सनादनीडः ।

यच्चिकेत सत्यमित्तन मों वसु स्पार्हमुत जेतोत दाता ॥४॥

सर्वशक्ति सम्पन्न, अरुणाभ प के समान महान्‌ पराक्रमी ओर सनातन गतिशील इन्दर (सूर्य) देव जिसे

कर्तव्य के रूप में निश्चित कर लेते हैं, वही करते हैं, व्यर्थ कुछ नहीं । अभीष्ट वैभव को अपने पराक्रम से अजित

करके वे (सूर्य देवता) स्तोताओं को सब प्रकार का ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं ॥४ ॥

१७८४.एभिर्ददे वृष्ण्या पौंस्यानि येभिरौ क्षदवृत्रहत्याय वज्री ।

ये कर्मणः क्रियमाणस्य मह ऋते कर्ममुदजायन्त देवाः ॥५॥

वज्रधारी इन्द्रदेव मरुद्गणों के साथ मिलकर (वृष्टि आदि) महान्‌ कर्म करते है । वृत्रादि (सूखे

के रूप में) 0 मि का वृष्टि-क्रिया आदि महान्‌ कृत्यों

में) मरुद्गण इन्द्रदेव के सहायक सिद्ध होते हैं ॥५ ॥

१७८५. अस्ति सोमो अयं सुतः पिबन्त्यस्य मरुतः।

उत स्वराजो अश्विना ॥६ ॥

यह सोमरस मरुद्गणं के लिए निचोड़कर तैयार किया गया है । इसके प्रभाव से तेजस्वी बने रुत्‌ तथा

अश्विनीकुमार इस सोमरस को (रुचिपूर्वक) पीते है ॥६ ॥

१७८६, पिवन्ति मित्रो अर्यमा तना पूतस्य वरुण: । त्रिषधस्थस्य जावतः ।७ ॥

भित्र, अर्यमा और वरुणदेव इस संस्कारित हुए और तीन पात्रों मे रखे हुए (तीनो लोको मे (व्याप्त) प्रशंसनीय

सोपरस का पान करते हैं ॥७ ॥

१७८७.उतो न्वस्य जोषमा इन्द्रः सुतस्य गोमतः । प्रातहोतिव मत्सति ॥८ ॥

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