३१२ * संक्षि ब्रहमचैवर्तपुराण *
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.. भक्तिपूर्वकं अतिथिका पूजन कर | भेद हैं। विद्यादाता (गुरु), अन्नदाता, भयसे रक्षा
लिया, उसके द्वारा मानो भूतलपर सम्पूर्णं महादान | करनेवाला, जन्मदाता (पिता) ओर कन्यादाता
कर लिये गये; क्योकि वेदोंमें वर्णित जो नाना | ( श्वशुर)- ये मनुष्योकि वेदोक्त पिता कहे गये
प्रकारके पुण्य है, वे तथा उनके अतिरिक्त अन्य | हैं। गुरुपत्री, गर्भधात्री (जननी), स्तनदात्री
पुण्यकर्म भी अतिधथि-सेवाकी सोलहवीं कलाकी | (धाय), पिताकी बहिन (बूआ), माताकी बहिन
समानता नहीं कर सकते । इसलिये जिसके घरसे | (मौसी), माताकी सपन्नी ( सौतेलौ माता), अन्न
अतिथि अनादृत होकर लौट जाता है, उस | प्रदान करनेवाली (पाचिका) और पुत्रवधू-ये
गृहस्थके पितर, देवता, अग्नि ओर गुरुजन भी | माताएँ कहलाती हैं। भृत्य, शिष्य, दत्तक, वीर्यसे
तिरस्कृत हो उस अतिथिके पीछे चले जाते है । | उत्पन्न (औरस) ओर शरणागत--ये पाँच प्रकारके
जो अपने अभीष्ट अतिथिकी अर्चना नहीं करता, | पुत्र हैं। इनमें चार धर्मपुत्र कहलाते हैं और
वह बड़े-बड़े पापोंको प्राप्त करता है। पाँचवाँ औरस पुत्र धनका भागी होता है*। माता!
ब्राह्मणने कहा--वेदज्े! आप तो वेदोंके | मैं आप पुत्रहीनाका ही अनाथ पुत्र हूँ, वृद्धावस्थासे
ज्ञानसे सम्पन्न हैं, अतः वेदोक्त विधिसे पूजन | ग्रस्त हूँ और इस समय भूख-प्याससे पीड़ित
कीजिये। माता! मैं भूख-प्याससे पीड़ित हूँ। मैंने होकर आपकी शरणमें आया हूँ। गिरिराजकिशोरी !
श्रुतियोंमें ऐसा वचन भी सुना है कि जब मनुष्य | अन्नोंमें श्रेष्ठ पूड़ी, उत्तम-उत्तम पके फल, आटेके
व्याधियुक्त, आहाररहित अथवा उपवास-दब्रती | बने हुए नानाप्रकारके पदार्थ, काल-देशानुसार
होता है, तब वह स्वेच्छानुसार भोजन करना | उत्पन्न हुई वस्तुपं, पक्वान्न, चावलके आटेका बना
चाहता है। हुआ तिकोना पदार्थविशेष, दूध, गन्ना, गुड़के बने
पार्वतीजीने पूछा--विप्रवर! आप क्या | हुए द्रव्य, घी, दही, अगहनीका भात, घृतमें पका
भोजन करना चाहते हैं? वह यदि त्रिलोकीमें हुआ व्यञ्जन, गुड़मिश्रित तिलॉँके लड्डू, मेरी
परम दुर्लभ होगा तो भी आज मैं आपको | जानकारीसे बाहर सुधा-तुल्य अन्य वस्तुं कर्पुर
खिलाऊँगी। आप मेरा जन्म सफल कीजिये। | आदिसे सुवासित सुन्दर श्रेष्ठ ताम्बूल, अत्यन्त
ब्राह्मणने कहा--सुब्नते! मैंने सुना है कि | निर्मल तथा स्वादिष्ट जल--इन सभी सुवासित
उत्तम ब्रतपरायणा आपने पुण्यक-व्रतमें सभी | पदार्थोको, जिन्हें खाकर मेरी सुन्दर तोंद हो जाय,
प्रकारका भोजन एकत्रित किया है, अत: उन्हीं | मुझे प्रदान कीजिये।
अनेक प्रकारके मिष्टान्नोंको खानेके लिये मैं आया आपके स्वामी सारी सम्पत्तियोंके दाता तथा
हूँ। मैं आपका पुत्र हूँ। जो मिष्टान्न तीनों लोकोंमें त्रिलोकीके सृष्टिकर्ता हैँ ओर आप सम्पूर्ण
दुर्लभ हैं, उन पदार्थोंकों मुझे देकर आप सबसे | ऐश्वर्योंको प्रदान करनेवाली महालक्ष्मीस्वरूपा हैं;
पहले मेरी पूजा करें। साध्वि! बेदवादियोंका | अत: आप मुझे रमणीय रत्रसिंहासन, अमूल्य
कथन है कि पिता पाँच प्रकारके होते हैं। मातां | रत्नोंके आभूषण, अग्रिशुद्ध सुन्दर वस्त्र, अत्यन्त
अनेक तरहकी कही जाती हैं और पुत्रके पाँच | दुर्लभ श्रीहरिका मन्त्र, श्रीहरिमें सुदृढ़ भक्ति,
विच्चादातान्नदाता च भयत्राता च जन्मदः । कन्यादाता च वेदोक्ता नराणां पितर: स्मृताः ॥
गुरुपत्नी गर्भधात्री स्तनदात्री पितुः स्वसा । स्वसा मातुः सपत्नी च
भृत्यः शिष्यश्च पोष्यश्च वीर्यजः शरणागतः । धर्मपुत्राश्च चत्वारो वीर्यजो धनभागिति॥
( गणपतिखण्ड ८। ४७-- ४९)