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प्रतिसर्गपर्व, द्वितीय खण्ड ] # पितृझर्मा और उनके वंशजोंकी कथा « २६७

नि

गक । वह हवाके वेगसे हिलते हुए केलेके पत्तेके समान हो कलावतीने वैसा ही किया और उसे उक पति पुनः

कपे लगी। हा नाय ! हा कान्त ! कहकर विलाप करने अपनी नौकासहित दीखने लगा । फिर क्या था ? सभी परस्पर

लगी और कहने लगी--'हे विधाता ! आपने मुझे पतिसे आनन्दसे मिले और घर आकर साधु वणिक्‌ने एक लाख

वियुक्त कर मेरी आशा तोड़ दी। पतिके थिना स्रीका जीवन मुद्राओंसे बड़े समारोहपूर्वक भगवान्‌ सत्यदेवकी पूजा की और

अधूरा एवं निष्फल है।! कलावती आर्तस्वरमें भगवान्‌ आनन्दसे रहने लगा। पुनः कभी भगवान्‌ सत्यदेवकी उपेक्षा

सत्यनागयणसे बोली--'हे सत्यसिन्धो ! हे भगवान्‌

सत्यनारायण ! मैं अपने पतिके वियोगमें जलमें डूबनेवाली हैँ,

आप मेरे अपराधोको क्षमा करें। पतिको प्रकट कर मेरे

ब्राणोंकी रक्षा क्र ।' (इस प्रकार जब वह अपने पतिके

पादुका ओको लेकर जलमें प्रवेश करनेवाली ही धौ) उसी

समय आकाशवाणी हुई--'हे साधो ! तुम्हारी पुत्रीने मेरे

श्रसादका अपमान किया है। यदि यह पुनः घर जाकर

अ्रद्धापूर्वक प्रसादको ग्रहण कर ले तो उसका पति नौकासहिते

यहाँ अवश्य दीखेगा, चिन्ता मत करो । इसपर आश्चर्यचकित

नहीं की। उस व्रतके प्रभावसे पुत्र-पौत्रसमन्वित अनेक

भोगोंका उपभोग करते हुए सभी स्वर्गलोक चले गये। इस

इतिहासकों जो मनुष्य भक्तिपूर्वक सुनता है, वह भी विष्णुका

अत्यन्त प्रिय हो जाता है। अपनी मनःकामनाकी सिद्धि प्राप्त

कर लेता है।

सूतजी योले--ऋषिगणो ! मैंने सभी व्रतोंमें श्रेष्ठ इस

सत्यनारायण-ब्रतको कहा। ब्राह्मणके मुखसे निकला हुआ

यह व्रत कलिकालमें अतिशय पुष्यप्रद है ।

(अध्याय २९)

( श्रीसत्यनारायण-ग्रत-कथाका षष्ठ अध्याय ]

(सत्यनारायण-्रत-कथा सम्पूर्ण )

पितृशर्मा और उनके बंशज--व्याड़ि, पाणिनि और वररुचि आदिकी कथा

ऋषियोनि कडा -- भगवन्‌ ! तीनों दुःखोंके विनाश

करनेवाले त्रतोंमें सर्वश्रेष्ठ सत्यनागयण-ब्रतको हमलोगोंने

सुना, अब आपसे हमलोग ब्रह्मचर्यका महत्त्व सुनना

चाहते हैं।

सूतजी बोले--ऋषियो ! कलियुगे पितृशर्मा नामका

एक श्रेष्ठ ब्राह्मण था। वह वेदवेदाड्रोके तत््वोंको जाननेवाला

था और पापक्मोंसे डरता रहता था। कलियुगके भयंकर

समयको देखकर वह बहुत चिन्तित हुआ। उसने सोचा कि

किस आश्रमके द्वारा मेरा कल्याण होगा, क्योंकि कलिक्क्‍लमें

संन्‍्यास-मार्ग दम्भ और पाखण्डके द्वारा खण्डित हो गया है,

वानप्रस्थ तो समाप्त-सा ही है, बस, कहीं-कहों ब्रह्मचर्यं रह

गया है, कितु गार्हस्थ्य-जीवनका कर्म सभी कमोमें श्रेष्ठ माना

गया है। अतः इस घोर कलियुगमें मुझे गृहस्थ-धर्मका पालन

करनेके लिये विवाह करना चाहिये। यदि भाग्यसे अपनी

मनोवृत्तिक अनुसार आचरण करनेवाली स्त्री मिल जाती है,

तब मेरा जन्म सफल एवं कल्याणकारी हो जायगा । इस प्रकार

विचार करते हुए पितृशमनि उत्तम पत्नी प्राप्त करनेके लिये

विश्वेश्वरी जगन्माता भगवतीकी चन्दन आदिसे पूजाकर स्तुति

प्रारम्भ की ।

पितृशर्माक स्तुति सुनकर देवी प्रसन्न हो गयीं और

उन्होंने कहा--'हे द्विजश्रेष्ट ! मैंने तुम्हारी खोके रूपमे

विष्णुयशा नामक ब्राह्मणकी कन्‍्याक्ो निर्दिष्ट किया है।'

तदनन्तर पितृशर्मा उस देवी ब्रह्मचारिणीसे विवाह करके

मधुरामे निवास करते हुए गृहस्थ-धर्मानुसार जीवन-यापन

१-वमः प्रकृत्यै सर्वायै कैयल्यायै नमो नमः ।ज़िगुणैक्धस्वरूपाय॑ तुरीयाये नमो नमः ॥

महत्तत्वजनन्ये॑चद्वन्द्कर् नमो नमः | बहामातर्नमस्तुध्ये साहंकारपितामहि ॥

पृथशुणावै शुद्धायै नमो तरनगे नमः । विद्यायै शुद्धसत्याये॑ लक्ष्म॑ सत्त्तरजोमधि ॥

नमो म्छतरविद्यायै ततः शुद्धे नमो नमः । क्त्यै सत्वतम्रोभूतयै तमो मातर्न नमः ॥

श्वि गुदधरजेमू्यै नपस्नैलोक्यवासिनि । उम्ते रजस्तमोमूत्य दुर्गदै च नमो नमः ॥ (प्रतिसर्गफर्व २। ३० ॥ १०--९४)

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