भंडांसुर अहकॉर वर्णन | [ २७३
अट्टालकेषु गोष्ठेषु विपणेषु सत्रासुच। ` ।
चतुष्किकास्वलिदेषु प्रग्रीवेषु वनेषु च॥१४
उस दैत्यकते पुर में निवास करने बाले लोग अकाल में ही हृदय के
कम्पसे संयत हो गये थे | ध्वजाओं के आगे रहने वाले कंके-ग्रू श्र-बैंक ओर
पक्षो आदित्य मंडल में देख-देंखंकर बड़े ऊँचे स्वर से क्रन्दन करने लगे ।
वहाँ पर बहुत से (क्रव्याद राक्षस गणं थे जो नेतरो के द्वारा ।दिखलाई नहीं
दिये गये ये ।८-६। बार-बार आक्राण लाणियों:के द्वारा बोलते; थे ओर सभी
ओर् दिशाओं में केतु बहुत हो मलिन दिखलाई, दे रहे ये ।१९। वे :सब धूमा-
प्रमानः हो: रहे थे; और देश्यों: तथा रासो के हृदयो में; बड़े, भारी क्षोम को
उत्पन्न करने वाले-थे । और असमय में हो दैत्यों कौ स्त्रियों के भूषण और
मालदि श्रष्ट होकर गिर रहे थे; ।११। हा-हा- ध्वनि करके अश्रू पात
करती हुई कदन की ध्वनि में सब्र, रो रहीं थीं। वहां पर. दर्षण-वर्म-ध्वजा-
खंग़ जौर् सम्पदाऐ एव मणि तथा वस्त्रों में बार-बार मलिनता ही गयी
थी । सौों में-चन्द्र! णालाओ में और सभी ओर केलि करने के गूहों में
महात् भीषण घोष सुनाई दिया करता ध्रा ।{२-१३। क्षट्टालिकाओं में--
गोष्ठो मे--व्रिपणो में और सभा भव्रनों में -चतुष्किकाओं मेँ-अलिन्दों
्रपरोवों में;और वलो मे सवत्र महान् अशुभ , एवं, कठोर, घोष सुनाई वैता
था ।१४। |; 5 का ; ही
' ' 'संबतोभंद्रंवासिधु नन्वाचर्तेषु वेश्मसु ` `
विच्छ दकेषु, संक्षुब्धेष्वबरोध्रन पालिपु ।
.स्वस्तिकरेषु च सर्वेषु गरमागारपुटेषु च. ॥ १५, ।} | ४ ०),
गोपुरेष, कपाटेष. वलभीनां च सीमसु । ¦` ` ` 7
वातायनेव कक्ष्यासु धिष्ण्येष चं खेलेषं चे ।।१६
सर्वत्र द॑ त्यनगरवासिभिर्जनमंइलेः } :
अश्रूयन्त महाघोषा: पधा भूतभापित्ताः ।। १७
शिथिली संनो जातो घीरंपेर्णा भयानका । |
करटः कटुकालापेरक्ली कि दिव।करं. । `
आराविष्, करोटीनां कोट्यश्चांपत्तन्भुवि ॥ १८