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३» नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीमद्धागवतमहापुराण

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पशम स्कन्ध

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पहला अध्याय

प्रियत्रत-चसित्र

राजा परीश्चितते पूछा--मुने ! महाराज प्रियत्रत तो

बड़े भगवद्धक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रममें

कैसे रुचि हुई, जिसमें फैंसनेके कारण मनुष्यको अपने

स्वरूपकी विस्मृति होती है और वह कर्मबन्धनमे बैध

जाता है?॥१॥ विप्रवर! निश्चय ही ऐसे निःसङ्ग

महापुरुषोंका इस प्रकार गृहस्थाश्रममें अभिनिवेश होना

उचित नहीं है ॥ २ ॥ इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं कि

जिनका चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरिकि चरणोंकी शीतल

छायाका आश्रय लेकर शान्त हो गया है, उन महापुरुषोंकी

कुद्ठप्बादिमें कभी आसक्ति नहीं हो सकती ॥ ३ ॥ ब्रह्मन्‌ !

मुझे इस वातका बड़ा सन्देह है कि महाराज प्रियत्रतन स्त्री,

घर ओर पुतरादिमे आसक्त रहकर भी किस प्रकार सिद्धि

प्राप्त क' ली और क्योकर उनकी भगवान्‌ श्रीकृष्णे

अविचल भक्ति हुई ॥४॥

श्रीशुकदेवजीने कहा--राज़न्‌ ! तुम्हार कथन

बहुत ठीक है। जिनका चित्त पतित्रकीर्ति श्रीहरिकि परम

मधुर चरणकमल-मकरन्दके रसम सराबोर हो गया है, वे

क्रिसी विघ्र-बाघाकरे कारण रुकावट आ जानेपर भी

भगवद्धक्त परमहंसोंके प्रिव श्रीवासुदेव भगवानके

कथाश्रवणरूपौ परम कल्याणमय मार्गको प्रायः छोड़ते

नही ॥ ५॥ राजन्‌ ! राजकुमार प्रियव्रत बड़े भगवद्धक्त

थे, श्रीनारदजीके चरणोकी सेवा करनेसे उन्हें सहजमें हौ

परमार्थतत्त्व बोध हो गया था। वे ब्रहमसत्रकी

दीक्षा-- निरन्तर ब्रह्माभ्यासमें जोवन बितानेका नियम

लेनेवाले ही थे कि उसो समय उनके पिता स्वायप्भुव मनुने

उन्हें पृथ्वीपालनके लिये शाखे बताये हुए सभी श्रेष्ठ

गुणोसे पूर्णतया सम्पन्न देख राज्यशासनके लिये आज्ञा

दी। किन्तु प्रियव्रत अखण्ड समाधियोगके द्वारा अपनी

सारी इन्द्रियो ओर क्रियाओं भगवान्‌ वासुदेवके चरणोंमे

ही समर्पण कर चुके थे । अतः पिताकी आज्ञा किसी

प्रकार उल्लद्घुन करनेयोग्य न होनेपर भी, यह सोचकर कि

राज्याधिकार पाकर मेरा आत्मस्वरूप स्क्री-पुत्रादि असत्‌

प्रपञ्चते आच्छादित हो जायगा--राज्य और कुटुम्बकी

चिन्तामें फैसकर मैं परमार्थतत्वको प्रायः भूल जाऊँगा,

उन्होंने उसे स्वीकार न किया ॥ ६॥

आदिदेव स्वयम्भू भगवान्‌ ब्रह्माजीको निरन्तर इस

गुणमय प्रपञ्चकी वृद्धिका ही विचार रहता है। वे सारे

संसारके जीवोंका अधिपाय जानते रहते हैं। जब उन्होंने

प्रियत्रतकी ऐसी प्रवृत्ति देखी, तब वे मूर्तिमान्‌ चारों वेद

और मरीचि आदि पार्षदोंकों साथ लिये अपने लोकसे

उतरे ॥ ७॥ आकाशमें जहाँ-तहाँ विमानोंपर चढ़े हुए

इन्द्रादि प्रधान-प्रधान देवताओने उनका पूजन किया तथा

मार्गमें टोलियाँ बाँधकर आये हुए सिद्ध, गन्धर्व, साध्य,

चारण और मुनिजनने स्तवन किया। इस प्रकार

जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात्‌ नक्षत्ननाथ

चन्द्रमाके समान गन्धमादनकी घाटीक़ो प्रकाशित करते

हुए प्रियत्रतके पास पहुँचे ॥ ८ ॥ प्रियत्रतको आत्म-

विद्याका उपदेश देनेके लिये वहाँ नास्दजी भी आये

हुए थे। ब्रह्माजोके वहाँ पहुँचनेपर उनके वाहन हंसको

* देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान्‌

ब्रह्माजी पधारे हैं; अतः वे स्वायम्भुव मनु और प्रियत्रतके

सहित तुरंत खड़े हो गये और सबने उनको हाथ जोड़कर

प्रणाम किया ॥ ९॥ परोक्षित्‌ ! नारदजौने उनकी अनेक

प्रकारसे पूजा की और सुमधुर वचनो उनके गुण

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