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गा के की के के के के # ४ क 8 # # # क के के को #

इ, उ, ए, ओ-ये पाँच स्वर होते हैं। इन्हींके | तिथियाँ होती हैं। "कसे लेकर "ह" तक

क्रमसे नन्दा (भ्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा) आदि | वर्ण होते हैं ओर पूर्वोक्त स्वरोंके क्रमसे सूर्य-

इसी तरह कलादि फल-साधनके लिये “कर्कटादौ हरेद्राशिमृतुवेदत्रवै: क्रमात्‌' के अनुसार करना चाहिये ।

६ + १२ कल्पना किया कि चं० सुः * ०० | ११ | २५ ॥ १०”

४ + ४०” यहाँपर मेष राशिका विकलात्पक ५०

३ + ५०" फल -५० को जोड़ा [प ०० ॥ ११ । २६ ॥ ००"

३- ५०” यह ११ सम्बन्धि ५ परी फल प्रतिपदाकी घटी

~ ४०" जोड़ दिया तो २।२४९।३६

= १२" ५॥ 99

२।५४।३६ हुआ

~ ४०" फिर मौन तथा पेषकः राति धुका (३-३) * ०

- ५०” इससे (२६ । ००) £ ° गुणा किया वो

३+ ५०७" « ० । ° हुआ। इसको तिथि घटादे

+ ४०” संस्कार किया २।५४।३६

६ + १२ ७० ॥ ००

ॐ ५ 449 = = ४८ 9 ॐ अ

ॐ न्ट कि क न

(]

२।५४ । ३६ तिपि-मान हुआ।

इसमें एष्यखण्डाते गठखण्डा अधिक हो तौ फलको ऋण समझना चाहिये । फिर भी तिथि- संस्कारके लिये तृतीय संस्कारं कह रहे

हैं (क्लो० १९-२०) | तििमानको द्विगुणित करके पश्मांस उसीर्ये घटा दे। सूर्यके अंशके फलको विपरीत संस्कार करे, उसमें तिथि-

काङके भिला दे। इसमें कलादिका ऋण फल-संशोघन करनेपर स्प्टरमान दण्डादिक हो जाता है। ऋणात्मक मानके नहीं घटनेपर उसमें

६० मिलाकर घटाना चाहिये एवं जिसमें संस्कार करना है, वहों ६० से अधिक हो तो उसमें हो ६० घटाना चाहिये--इस तरह तृतीय

संस्कार होता है।

उदाहरण--'' द्विगुणिता'' के स्थानपर “'त्रिगुणिता "" पाट रखनेपर पूर्वातीत मध्यम तिथिका मात्र दण्डादिक (९। ३६) को $ से गुणा

किया तो (२८। ४८) हुआ। इसका षष्ठि (४१.४८) हुआ। ( २८। ४८ )-मेंसे षहांश (४।४८)-को घटाया तो = २४। ०० हुआ। इसमें

तिथि-जाड़ी (९। ३६)-को मिलाया तो (३३। ३६) हुआ। इसमें सुर्के अंशका ५ प० संस्कार-फल पटाया तो (३३। ३६)--

(५। ०)*(२८। ३६) हुआ। ६० से तष्टित किया तो २८। ३६ घट्यादिक स्पष्ट तिथ्विका मान हुआ, जो पूर्षानीत मध्य तिषिके पट्यादिक

(९। ३६) के आस्त हुआ।

““ट्विगुलिता'' पाठ रखनेपर ऐसा नहीं होता है, अधिक अन्तर होत है ! अब योगका साधन बताते हैं (श्लोक २१-२३)॥

स्पष्ट तिथि-सात्कों (२८।३६)४०११४। २४ हुंआ। इसमें तिषिका तृतीयांश( ९। ३२) मिलाया तो १२३।५६ हुआ। २७ से

तहित किया तो लब्धि ४ से पट्यादिक १५।५६ हुआ अर्थात्‌ सौभाग्य योगका मान घट्यांदिक १५।५६ हुआ।

योग-साधतका दूसरा प्रकार कहते हैं--( श्लोक २३) सूर्य तथा चन्द्रमाकौ योग-कलामें ८०० से भाग देनेपर लब्धि योगसंख्या

होगी । जेष एष्य योगका गत घटादि सान होगा। उसे ८०० कलामें घटाकर सूर्य-चन्द्र-गति-योगमें ६० घटो तो शेष योगकलारमे क्या इस

तरह अनुपातसे भौ योगका घट्यादि पान होगा।

अब करणका साधन-प्रकार कहते हैं--

द्विएुणित तिथि-संख्यामें १ घटानेसे सात 'चल' करण होते हैं और कृष्णपक्षकी चतुर्दशौके द्वितीय परार्धये शकुनि तथा अमावास्थाके

पूर्वार्थ और परार्धे चतुष्पद एवं 'काण' करण होते हैं। शुक्लपक्षकी प्रतिपदाके पूर्वार्धमें किस्तुप्त वामके चार करण 'स्थिर' होते हैं और

तिधिके आधेके बराबर करणोंका मान होता। यहाँपर मूल पाठमें *'तिध्यर्धतों हि '" ऐसा लिखा है, किंतु वास्तवमें ''विध्यर्धतोडहि: '” ऐसा

पाठ होगा चाहिये; क्योंकि 'हि' को पादपूरक रखत्रेसे 'वाग” अर्थ वहीं होगा। जिससे नाग कमक करणका ज्ञात नहीं होगा और *' अहिः '”

ऐसा रखगेपर काण करणका बोध होगा।

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