उत्तरभागे सप्तदश्ोंध्याय:
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नोपानदइर्ज्जितोउघ्वानं जलादिरहितस्तवा॥ ९ १॥
मार्ग में कभी भी अकेले, अधार्मिक जनों के साथ,
रोगग्रस्त मनुष्यों, शुद्रों और पतितो के साथ नहीं जाना
चाहिए। बिना जूता पहने तथा बिना जल लिये हुए भौ यात्रा
नहीं करनी चाहिए।
न रात्रो वारिणा सद्धं न विना च कमण्डलुप्।
जानिगो्राह्मणादीनामन्तरेण ्रजेत्कवचित्॥ ९ २॥
रात्रि में, शत्रु के साथ और बिना कमण्डलु लिए तथा
अग्नि, गौ अथवा ब्राह्मण आदि को साथ लिये बिना कहाँ
नहीं जाना चाहिए।
विवत्स्य्ती न वनितापतिक्राेद् द्विजोन्रमा:।
न निददेष्ठोगिनः सिद्धान् गुणिनो वा यर्तीस्तवा॥ ९३॥
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! अच्छे आचरण वाली नप्र स्वभावे की
स्त्री का तिरस्कार न करें। उसी प्रकार योगियो, मिद्धो ओर
गुणवान् संन्यासियों कौ भी निन्दा न करे।
देवतायतते प्राज्ञो न देवानां च सक्रिधौ।
नाकरापेत्कामतश्छाया ब्राह्मणाना गवापपि॥ ९ ४॥
बुद्धिमान् पुरुष को देवमन्दिर में या देवपूर्तियों के सामने
ब्राह्मणों को तथा गौओं कौ परछाई को जानवूझकर नहीं
लाँघना चाहिए।
स्वां तु नाक्रमवेच्छायां पतितान रोगिभिः।
नाङ्गारभस्पकेशादिष्वधिगिित्कदाचन॥ ९५॥
उसो एकार पतित आदि नीच लोगों से अववा रोगियों से
अपनी छाया को लाँघने नहो देना चाहिए और कभी भी
अगार, भस्म, केश आदि पर खड़े नहों होना चाहिए।
वर्जयेन्यार्जनीरेणु स्नानकस्रपटोदकम्।
न भक्षयेदक्ष्याणि नापेयश्चापियेदिदरबाः॥ ९६॥
हे द्विमो। झाड़ू की धूल, स्नान किया हुआ वस्त्र ओर उस
बड़े के जल का त्याग कर देना चाहिए अर्थान् उस जल को
पुनः काम में नहीं लाना चाहिए। उसी प्रकार अभक्ष्य पदार्थों
का भक्षण नहीं करना चाहिए और अपेय पदार्थों को पीना
भो नहीं चाहिए।
इति श्रोकूर्पपुराणे उरा गाईस्थ्यधर्मनिरूपणं नाम
षोडशोऽध्यायः॥ १६॥
सप्तदशोऽध्यायः
(परश्ष्यापक्ष्यनिर्णय)
व्यास उवाच
नाच्चाच्दस्य विध्रोडन्न॑ मोहाद यदि वान्यत:।
स शुद्योरनि व्रजति यस्तु भुइक्ते छ़नापदि॥ १॥
ब्राह्मण को शुद्र का अन्न नहीं खाना चाहिए। आपात्काल
को छोड़कर जो मोहवज्ञ या अन्य प्रयोजन से शुद्र का अन्न
खाता है, वह शूद्रयोनि को ही प्राप्त होता है।
वण्पासान्यों द्विजो भुंक्ते शुहरस्यान्न॑ विगर्हितम्।
जीवन्नेब भवेच्छूद्रों मृत एवाभिजायते॥ २॥
जो द्विज छः मास तक निरन्तर शूद्र का निन्दित आहार
ग्रहण करता है, वह जीवित अवस्था में ही शूद्र हो जाता है
और मरणोपरान्त भी उसी योनि को प्राप्त होता है (या श्रान-
योनि में जाता है।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्रस्य च मुनीश्चरा:।
यस्थाश्नेनोदरस्थेन पृतस्तद्योनरिमाणुयातू॥ ३॥
हे मुनोश्रो! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में से
जिसका भौ अन्न उदर में स्थित रहता है, मृत्यु के पश्चात् वह
उसो योनि को प्राप्त करता है।
नात्रं नर्त्तकान्नक्न तक्ष्णोउश्न॑ चर्मकारिण:।
गणान्नं गणिकान्रज्ञ षड़न्नानि च वर्ज्जयेत्॥ ४॥
नटं (अथवा राजा), नर्तक, बढ़ई, चर्मकार (मोच)
किसो जनसमूह का और वेश्या का अप्र इन छर; प्रकार के
अन्यो का त्याग करना चाहिए।
चक्रोफ्जीविरजकतस्करध्यजियां तथा
गखर्वलोहकारान्ं सृतकात्नझ्ञ वर्जयेत्॥ ५॥
उसी प्रकार चक्रोपजीवि अर्घात् चकऋ निर्माण करके
आजीविका चलाने वाला या तैली, कपड़े रंगने वाला या
धोबी, चोर,, मग्नविक्रयी, गायक, लुहार तथा सूतक के अन्न
का भी त्याग करना चाहिए।