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चैवं वृक्षं वै छिन्हान्नाप्सु हीवनपुत्सजेत।

नास्थिभस्मकपालानि न केशात्र च कण्टकान्‌।

ओर्षागारकरीषं वा नादित्छित्कदाचन।।७९॥

चैत्य ( यज्ञस्थान) या चौराहे के वृक्ष को कभी न काटे

और पानी में कभी धुकना नहों चाहिए। जल में कभी भी

अस्थि, भस्म, कपाल, केश, टि, धान के छिलके, अंगार

और गोबर नहीँ डालना चाहिए।

न चानि लंघयेद्धीमान्नोपदध्यादय: क्वचित्‌।

न चैनं पादतः कुर्यान्युखेन न अमेद्रुय:॥ ८ ०॥

बुद्धिमान्‌ पुरुष कभी भी अग्नि को लंबे नहो और उसे

आपने पास भी न रखे। उसी प्रकार अपने पैरों कौ तरफ

अग्नि को न रखे और मुख से अग्नि को फूँकना भी नहीं

चाहिए।

ज कृपमवरोहेत नाचक्षोत्राशुचि: क्वचित्‌।

अग्नौ न प्रक्षिपेदर्गिर नाद्धिः प्रशपयेत्तया॥ ८ १॥

अपवित्र व्यक्ति को कुएं के ऊपर चडना चाहिए और न

कभो उस में मुँह डालकर देखना चाहिए। अग्नि में अग्नि

का प्रक्षेप न करे और जल से उसे युझाना भी नहीं चाहिए।

सुहन्मरणमार्तति वा न स्वयै श्राववेत्पराना

अपण्यम्रव पण्ये वा विक्रये न प्रयोजयेत्‌॥ ८ २॥

किसी को भी अपने मित्र की मृत्यु अथवा उसके दुःख

का समाचार स्वयं दूसरों को सुनाना नहों चाहिए। जो विक्रय

के अग्रोग्य हों और जो छल-कपट दारा प्राप्त हों, ऐसे

पदार्थों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

न वद्धि मुखनिश्चासैर्ज्वालयेब्राशुचिर्दष :।

पुण्यस्नानोदेकस्नाने सीमान्तं वा कृंपेन्न तु॥८३॥

उसी प्रकार वुद्धिमान्‌ पुरुषं अपवित्र अवस्था में अग्नि को

अपने मुख से फक देकर प्रज्वलित न करे। ऐसी अवस्था में

तौर्थस्थान के पवित्र जल में स्नान न करे तथा उसको सौपा

पर्यन्त भूमि को भी न जोते।

न भिन्धापपर्वसपयं सत्योपेत॑ कदाचना

परस्पर पश्नूत्‌ व्यालान्‌ पक्षिणो नाववोधयेत्‌॥। ८४॥

इसी प्रकार सत्य से युक्त पूर्व प्रतिज्ञ नियम को तोड़ना

नहीं चाहिए तथा परस्पर पशुओं को, सर्पो को और पक्षियों

को लहाने के लिए प्रेरित नहीं करना चाहिए।

परवायां न कुर्वीति जलपानायनादिधि:।

कारयित्या सुकर्माणि कारून्‌ प्ान्न यर्जयेत्‌।

कूर्मपहापुराणण्‌

सायं प्रार्गुहद्वारान्‌ भिक्षां नावधाटयेत्‌॥ ८ ५॥

जल, वायु और धूप द्वारा दूसरे को बाधा नहीं पहचान

चाहिए। अच्छे काम कर लेने के बाद याद में कारीगरों को

(पारिश्रमिक दिये विना) छोड़ नहीं देना चाहिए। उसो

प्रकार सायं तथा प्रातः काल भिक्षा के उद्देश्य से आने वालों

के लिए घर के दवार बन्द नहीं कर देने चाहिए।

वहिर्पाल्यं बहिर्गर्स भार्यया सह भोजनम्‌]

विगृद्मवादं कुरवे च विवर्जयेत्‌॥ ८६॥ -

उसो प्रकार बाहर कौ कोई दूसरे अनजाने व्यक्ति कौ

माला धारण न करे। बाहर के गन्ध-चन्दन आदि, पत्नी के

साथ भोजन करन, विग्रहपूर्वक विवाद और कुत्सित द्वार से

प्रवेश आदि का त्याग कर देना चाहिए।

न खादन्‌ ब्राह्मणस्िऐ्ेश्न जल्पन्त हसन्‌ बुध:।

स्वरा मैव हस्तेन स्पृशेन्नाप्सु घिर्ं वसेत्‌॥ ८७॥

किसी भी विद्वान्‌ ब्राह्मण को खाते हुए खड़ा नहीं होना

चाहिए और हँसते हुए बोलना नहीं चाहिए। अपने हाथ से

अपनो अनि का स्पर्श नहों करना चाहिए और देर तक पानी

के भीतर नहँ रहना चाहिए।

च पक्षकेणोफ्धमेष्न शूर्पेण न पाणिना।

पुखैनैव धमेदन्न मुखादम्निरजायत॥ ८८॥

अग्नि को पंखे से, सूप से या हाथ से (हवा देकर)

ग्रज्वलित नहीं करना चाहिए। मुख से (फुँकनी द्वार) अग्नि

को जलाना चाहिए क्योंकि (परमात्मा के) मुख से हो अग्नि

को उत्पत्ति हुईं है।

परस्खिय न धावेत नायाज्यं योजयेद्‌ द्विजः।

ैकशचरेत्‌ सां विप्रसप्रवायं च वर्जयेत्‌

देवतायतने गच्छेत्कदाचिन्नाप्रदक्षिणम्‌॥ ८९॥

न वीये वस्त्रेण न देवायते स्वपेत्‌।

द्विन को परस्त्री के साथ बात नहीं करनौ चाहिए ओर जो

यज्ञ कराने के लिए योग्य न हो, उसके यज्ञादि नहों करने

चाहिए। ब्राह्मण को सभा में अकेले नहीं जाना चाहिए तथा

मण्डली का भी त्याग कर देना चाहिए अर्थात्‌ एक-दो

व्यक्तियों के साथ हो जाना चाहिए। देवालय में यायं ओर

से कभी धौ प्रवेश नहीं करना चाहिए अथवा बिना प्रदक्षिणा

के देवमन्दिर में नहों जाना चाहिए। किसो भो वस्त्र से हवा

नहीं करनी चाहिए और देवभन्दिर में सोना नहीं चाहिए।

ैकोऽध्वानं प्रपश्ेत नाधार्मिकाजनै: सह॥ ९०॥

न व्यापिदृषितर्वापि ने शुः पतितैस वा।