रघ६
गीतविद्याधरने कहा-- महामते ! जिस
महात्माने इन्दियोकि समुदाय तथा उसके बल्को जीत
लिया है, उसीको तपस्वी, योगी, धीर और साधक कहते
हैं। आप जितेन्द्रिय नहीं हैं, इसीलिये तेजसे हीन हैं।
ब्रह्मनू! यह वन सबके लिये साधारण है--इसपर
सबका समान अधिकार है; इसमें कोई 'ननु नच' नहीं
हो सकता। जैसे इसके ऊपर देवताओं और सम्पूर्ण
जीवॉका स्वत्व है, उसी प्रकार मेरा ओर आपका भी है।
ऐसी दशामे मैं इस उत्तम वनक्रो छोड़कर वयो चत्ता
जाऊँ ? आप जायें, चाहे रहें; मुझे इसकी परवा नहीं है ।
विप्रवर पुलस्त्यजी धर्मात्मा हैं; इसल्ख्यि वे क्षमा
करके स्वयं ही उस स्थानक छोड़कर अन्यत्र चले गये
और योगासनसे बैठकर तपस्या करने कगे । महाभाग
मुनिश्रेष्ठ पुरस्त्यके चले जानेपर दीर्घकालके पश्चात्
गन्धर्वको पुनः उनका स्मरण हो आया। वे सोचने
लगे--*मुनि मेरे ही भयसे भाग गये ये-- चर, देख ।
कहाँ गये ? क्या करते है ओर कहाँ रहते हैं ?' यह
विचारकर गीतविद्याधरने पहले महर्षिके स्थानका पता
लगाया और फिर वराहका रूप धारण करके ये उनके
उत्तम आश्रमपर गये, जहाँ पुलस्त्यजौ आसनपर
विराजमान थे । उनके दारीरसे तेजकी ज्वात्प्र उठ रही
थी । किन्तु मेरे पतिपर इसका कुछ प्रभाव न पड़ा, वे
कुचेष्टपूर्वक धुथुनके अग्रभागसे उन नियमशील
ब्राह्मणको तिरस्कार करने लगे । यहाँतक कि उनके आगे
जाकर उन्होंने मरू-मूत्रतक कर दिया; किन्तु पशु
जानकर मुनिने उनको छोड़ दिया--दण्ड नहीं दिया।
[मुनिकी इस क्षमाका मेरे पतिपर उलटा ही असर हुआ,
उनकी उदृण्डता और भी बढ़ गयी ।] एक दिन झूकरके
» अर्चयस्व इषीकेदौ यदीच्छसि परं पदम् +
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
ही रूपमे वे फिर वहाँ गये और बारंबार अट्टहास करने
लगे । कभी ठहाका मारकर हँसते, कभी रोते और कभी
मधुर स्वरसे गीत गाते थे।
सूअरकी चेष्टा छिपी देखकर मुनि समझ गये कि
हो-न-हो, यह यही नीच गन्धर्वं है और मुझे ध्यानसे
विचलित करनेकी चेष्टा कर रहा है। फिर तो उन्हें बड़ा
क्रोध हुआ। ये शाप देते हुए बोले--'ओ महापापी !
तू झ्ुकरका रूप धारण करके मुझे इस प्रकार विचक्तित
कर रहा है, इसलिये अब शूकरकी हौ योनिमें जा।'
देवि ! यही मेरे पतिक झूकरयोनिमें पड़नेका वृत्तान्त है ।
यह सब मैंने तुष्टं सुना दिया । अब अपना हाल बताती
हूँ, सुनो । पूर्यजन्मे मुज्ञ पापिनीने भी घोर पातक
किया है।
--- ॥ + [र