त एक सौ तेईसवाँ अध्याय
युद्धजयार्णव-सम्बन्धी विविध योगोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं--(अब स्वरके द्वारा | युद्धजयार्णव-प्रकरणमे विजय आदि शुभ कार्योकी
विजय-साधन कह रहे हैं-) मैं इस पुराणके | सिद्धिके लिये सार वस्तुओंकों कहूँगा। जैसे अ,
१०६२ । डरे
५३२ । ५६
१०६२ । ५७४ । ५६ हुआ। यहाँ तृतीय स्थानीय (५१) में ३० मिलाया तो--
३०
१०६२ । ५७४ । ८६ हुआ। इसमें 'रसा्काष्रपलैयुंत:' के अनुसार (६।१२।८)
६ ॥ १२ । ८ तीतों स्था मिलाया
१०६८ । ५८६ । ८९ हुआ। इसे ६० से वहित किया तो--
१०७७ ॥ ४७ । २९ हुआ। यहाँ प्रधम स्थाने २८ से भाग देकर शेष १३ को रखा तो
१३ ॥ ४७ । २९ हुआ। इसमें पूर्वनीते तिधि-नाड़ी (३। ३७। ३६) को मिलाया तो
पि ॥ ॐ । ३६
.) | २५ । ५ यह भी सम्पपाडु हुआ अर्थात् दूसरा ऊर्ष्वाड़ हुआ।
फिर गुणसं (५३२।५१)-को आधा किया तो (२६६। २५) हुआ। दूस स्थानमें ३ घटाया तो (२६६।२२) हुआ। इसे
दोसे गुणा किया तो (५३२। ४४) हुआ। यहाँ (५३२) को ११ से गुणा किया और ४४ में १ मिलाया तो (५८५२। ४५) हुआ। यहाँ
(४५)-में ३९ से भाग देकर शेष ६ को अपने स्थागर्मे लिखा। लब्धिकों प्रथम स्थानमें घटाया तो ( ५८५६॥ ६) हुआ। प्रथय स्थागर्मे
२२ घटाया तो (५८२९।६) हुआ। इसे ६० से विति करके लग्धाङ् (९७१ ९। ६) हुआ। इसमें दूसरे ऊर्ध्वाडडू (१७॥ २५।५)-को मिलाया
तो (११४। ३४। ११) हुआ। प्रधम स्थात २७ से भाग देनेपर (६। ३४। ११) हुआ--यह नक्षत्र तथा योगका ध्रुवा हुआ।
व्यवस्थित शकादिमें तिथिका ध्रुवा (२।३२। ००) यह है और नश्षत्र-धुवा (२।११॥ ००) यह है, इसको प्रत्येक मासमें अपने-
अपने पाने जोड़ता चाहिये। जैसे कि पूर्वानीत तिथिके वारादि (३। ३७। ३६) -मे तिधिका वारादि धरुवा (२।३२। ००) -को मिलाया तो
चैशाख शुक्ल प्रतिपदाका मान यागादि (६।९। ३६) मध्यम मानसे हुआ एवं पूर्वानीत तक्षत्र-मात्र (६। ३४। ११)-में नक्षत्र-घ्रुवा
{२।११। ००) को जोड़ा तो (८।४५।११) हुआ अर्थात् पुष्य नश्चत्रका मान मध्यम दष्डादि (४५। ११) हुआ।
अब तिथि आदिका स्पष्ट मान जाननेके लिये संस्कार -धिधि कह रहे है । एसे ११ वें श्लोकसे २० यें रलोकतकको ज्याख्याके
अनुसार समझना चाहिये ।
ति.
54 | न |
ति. ति. क्रमते ऋण-
१३ १ = ५ अर्थात् त्रयोदशीके साधित
१२ रे „„ = १ पघरीमानमें ५ घटी ऋण
१६ | „„ ~= १५ और प्रतिपदाकी घटौंमें ५
१० ड़ ७... = १९ घटी अंरात्मक फल घन
९ ५ „„ ~ २२ करता चाहिये।
८ ६ ^ = २४