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# शारणं ध्रज सरश ससयु जयसुमापतिम् #
[ खंक्ित स्करन्वपुरुण
परदितषाधनद्धौ इच्छा रखते टै, अविवेकी मलुष्वोका
विषयॉर्मे जैसा प्रेम होत है; उससे घौ कोटि गुनी अधिक पीतिका
विस्तार वे भगवान् भ्रीद्रिके परति करते है, नित्य कर्तव्य-
जुद्धिते गेष्णुस्वरूप शङ्कर आदि देवतार्भोका भक्तिपूर्यक पूजन
और ध्यान करते हैं, पितरोंमें भगवान् विष्णुकी ही दधि
रखते हैं, भगवान् विष्णुसे भित्र दूसरी किसी वस्तुको नहीं
देखते । समष्टि ओर व्यष्टि खड भगवानके ही स्वरूप हैं; भगवान्
जगतूसे मित्र होकर भी मिश्न नहीं हैं; 'हे भगवान् जगन्नाथ |
मैं आपका दास हूँ, आपके स्वरूपम भी मैं हूँ; आपसे पृथक
कदापि नहीं हूँ; जब आप भावान् विष्णु अस्तर्वामीरूपसे
सवके दुदयमें विराजमान हैं। तब सेव्य अथवा सेवक कोई भी
आपसे मित्र नहीं है । इस भावनासे सदा सावधान रहकर
जो ब्रक्षाजीके द्वारा यन्दनीय युगछ चरणारविन्दोंपाले श्रीद्रिच्े
सदा प्रणाम करते; उनके मार्मोका कीर्तन करते, उन्हींके
अजनमें तत्पर रहते और संसारे लछोगोंके समीप अपनेकों
त्अके समान तुच्छ मानकर विनयपूर्ण बर्ताव करते हैं।
जगते सब ल्ोगौंका उपकार करनेके लिये जो कुशछ्ताका
परिचय देते हैं; दूसरोंके कुदाल-शेम्को अपना ही मानते हैं
दूसरोंका तिरस्कार देखकर उनके प्रति दयासे द्रवीभूत दो
जाते हैं तथा खबके प्रति मनर्मे कस्पाणकी भावना करते है,
वे ही विष्णुमक्तकै नामसे प्रविद हैं। जो पत्थर, परधन
और मिट्टीके देर; परायी ल्ली और कृठशाह्मछी नामक
सरके, मित्र, द्रः भाई तथा ऋल्थुवर्गम॑ समान बुद्धि
रज़नेयाके हैं, वे ही निम्चितरूपसे विष्णुभक्ूफे नामसे प्रसिद
हैं। जो दूसरोंकी गुणराशिसे प्रसक्ष होते और प्ये मर्मफो
डकनेका प्रयक् करते है, परिणामे सरको सुख देते हैं,
भगवान सदा मन छगाये रहते तथा प्रिय यचन बोलते हैं;
वे ही वैष्णवफे नामे प्रसिद हैं।| जो भगबानके पापहारी
शुभनाम सम्बन्धी मधुर फदका जप करते और जय-जयकी
घोषणाके साथ भगवन्ना्मोका कीर्तन करते हैं; वे अकिछ्यन
# किपयेष्दनिवेक््ना दा प्रीतिरुपजायते ।
बितस्बतें भु ष्ठं प्रीति शसकोडियुर्गां हदी॥
( रक ७ कै उन १०। २०४-३०७ )
¶ षवदि प्रभे शेष्लन्डे
परनि च॒ कृश्शाब्मलीपु ।
सखिरिपु्ेषु सन्ध
सममः शाह दैष्णया: प्रसिद्धा : ॥
मारमा बैध्णयके रूपमें प्रसिद्ध हैं । जिनका चित्त भरीहरिे
चरणारविन्दोम निरन्तर छगा रहता दै, जो मरेमाधिक्यके
कारण नडबुदि. सदश बने रश्ते दैं, सुख और दुःख दोनों दी
जिनके लिये समान हैं। जो भगवान पूजानं चुर हैं तया
अपने म्ग और विनययुक्त ग्राणीको भगवानूकी सेबार्मे
समर्पित कर चुके हैं, वे ही वैष्णवके नामसे प्रसिद्ध हैं।
मद और अहज्वार गल जाने के कारण जिनका अन्तःकरण
अत्यन्त श्रद्ध हो गथा दै, अमरोंके सरिश्वसनीय यन्धु
भगवान् इतिंहका यवन करके जो शोकरदित हो गये ईं,
ऐसे वैष्णव निश्चय ही उदको प्राप्त होते हैं । भगवान्मे
सदैव उत्तम भक्ति रक्नेवाले भक्तोंके शुस चरित्र और
हक्षणऊा वर्णन मैंने ठुमसे किया है। यद् मनुष्योकि कनि
पढ़ते ही उनके चिरसश्ित मख्का नाश करता है |
अगबानके भजनके लिये कभी धनकी आयश्यकता तथा
शरीरकों कष्ट देकर किये जानेवाठे किसी विशेष प्रकारफे
प्रयोगकी भी आवश्यकता नहीं टे । सूदुछ एवं मन्द स्परसे
बाणीके द्वारा भगवावके नामोंका क्रीर्तन छोता रहें। तो मैं
इसीफो भजन मानवा हूँ । तुम्होरे मनम भगवान
दास्यभावका ही चिन्तन होना चाहिये।
किंतु जो म्जुपष्योंके शम आचरजोंसे भी देष करते हैं
और स्वयं अपने चित्तकों दुराचारमें ही योधि रखते ४, मदे
भारी अमज्रूफों पा करके मी निभिन्त रहते हैं और सदा
ऐेक्वर्य तथा पिपयभोगके रसमें ही सुखका अनुभव करते
हैं, वे मनुष्य वैष्णव नहीं हैं। वे तो बहुत ही निम्नभेणीके
मनुष्य हैं। अपने दुदयरूपी कमरूमें ब्रिराजमान परमानन्दमय
ओहरिके स्वरूपका जो क्षणमर भी चिन्तन नहीं करते, उन्मत्त.
भावसे ठे रहते हैं और अपने शठे वचने जाएसे
भगवषानके नामको भी निरन्तर आच्छादित किये रहते हैं, वे
भी भगवानके भक्त नहीं हैं । जिनके मनम परायी खी ओर
पराये धनके लिये सदा रोभ थना रहता है; जो कपण
बुढियाक्े हैं और सदा अपना ही पेट भरनेंमें छगे रते हैं।
ये नरपश्ञ विष्णुभक्तिसे सर्वथा रहित हैं। जो निरन्तर दुष
शुक्रागपझुझुखाः प्स्व == मर्म-
च्छदनपराः परिषामशौरुददा हि ।
भगवत्ति स्तवं अदश्षणिक्ताः
प्रियवचस: खत वैष्यवाः प्रसिदा: ॥
(क्र बै० ढ० १० १० । १२-१३)