वैष्णयजण्ड-उत्कलशण्ड ]
# भगयान् जगज्ञाथके नील्मणिमय विप्राहका वर्णन #
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आपकी प्रसक्षताफे छिये आपकी श्या सेवा करे, आपकी किस
आजाका पान कहूँ १ कौन-खा प्रयोजन छेकर आपने मेरे इस
घरको पवित्र किया है १
भक्ति और विनवे सनी हुई राजाकी यह कोमल बाणी
सुनकर नारदजीने मुखकराते हुए. कद्ा--“दपभेष्ठ ! तुम्हारे
निर्मल गुणोंसे ब्रा आदि सम्पूर्ण देवता, सिद्ध और मुनि
अत्वन्त प्रसन्न हैं। तुमने बहुत अच्छा निश्चय किया | इजारों
जर्न्मेके अम्पाससे नीझछाचएगुट्दानियासी भगवान् माधवर्म
भक्ति होती है। परम बुद्धिमान् अह्माजीने उन्हीं भगवान्
जगदीश्वरकी आराधना करके इस सुष्टिका निर्माण किया और
पितामहकी पदवी पायी है। तुम भी उन्हींके वंशम उत्पन्न
हुए. हो, अतः भगवानके प्रति शुम्दारी पेखी भक्ति होनी
उचित ही है। पग-पगपर दुःख और सहूटोंसे व्याप्त इस
संसाररूपी बनमें मठकते हुए मनुष्यो लिये एकमात्र
भगवान् विष्णुकी भक्ति शी सुख देनेवाली है | यह संसार
एक सपुद्र है जं कोई मी सदारा देनेवाला नहीं है | सुख.
दुःख आदि इन्द्रौकी प्रचण्ड ओंधीसे इसमें सदा तूपान
आता रहता दै, इस कारण यह अत्यन्त दुस्तर है। इस
भक्सा द्वे हुए. मनुष्योंके लिये भगवान् विष्णुकी भक्ति
ही नौष्छ मानी गयी है। एकमात्र माता मगवत्ती विध्णु-
मक्तिका आभय लेकर सन्तुष्ट रहनेयाफे साधुपुरुष कमी शोक
नहीं करते । राजन् । देदधारियोंकी जो बढ़ी भारी पापयाश्ि
कै; यह विप्णुभक्तिरूपी महान् दावानलमे पतड्रोंकी भांति
अख जाती है। प्रयाग, गङ्गा आदि तीर्थ, तपस्या, भेष्ठ
अश्वमेष यज्ञ, महान् दान, ऋत, उपास और निवम--इन
सयका सदृशौ बार सेवन किया जाय और इनके पुण्यसमूहको
कोटि-क्ेटि गुना करके एकत्र किया जाय तो भी षद विष्यु-
अक्तिके हजारवें अंशके यराबर भी नहीं बताया गया १ ।›
मारदजीके बताये हुए विष्णुभक्ति-माहात्म्यको सुनकर
राजा इन्द्रयुक्नफे मनम विष्णुमक्तिका स्वरूप आननेकी इच्छा
हुईं। अतः उन्होंने पृष्ा-- "भगवन् | मक्तिका क्या स्वरूप है !
उसके रक्षणका वर्णन कीजिये |?
# झश्व मेंध: अतागरों दानानि सुमहान्ति च।
जतोपकाप्तनियमा:. सइल्राण्दर्जिता = अपि ॥
समूह एपामेफत्र गणितः कोटिक्रेटिजि: ।
विष्णुभक्ते: सइस्रांससमोइसौ न हि कोर्तित:॥
( रकू० वै च १० । ४१.७४)
नारद्जीने कहा--राजन् ! सायधान होकर सुनो । मैं
भगवान् विष्णुकी सनातन भक्तिकां सामान्य और विशेषरूफ्से
वर्णन करता हूँ | गुणोंके मेदसे मक्तिके तीन भेद हँ--सात्विकी,
राजसी और तामसी । इनके अतिरिक्त एक चौथी भक्ति मी
दै, जो निर्गुणा मानी गयी दे । राजन् | जो लोग काम और
क्रोधके वशीभूत हैं और प्रत्यक्ष ( इस जगत् ) के सिवा और
किसी ( परलोक आदि ) की ओर दृष्टि नहीं रखते, वे अपने-
को छाम और दूसरोंकों हानि पहुँचानेके लिये जो भजन
करते हैं, उनकी वह मक्ति तामसी कड्टी गयी है। अधिक
यरकी राभि लिये अथवा दूसरेकी स्पर्धा ( छाग-डॉट ) से,
प्रसक्ायश परलोकके किये भी, ओ भक्ति होती है; यह राजसी
मानी गयी है। प्रत्यौ किक स्थभको स्थायी समझकर और इद्लोक-
के समस्त पदायोकों नक्र देखकर अपने वर्ण तथा आश्रमके
धर्मोका परित्याग न करते हुए आत्मशनके लिये जो भक्ति की
जाती दै, वह सात्विकी है । यह जगत् भगन्नाथका दी स्वरूप
है। उनते भिन्न शसफा दूसरा कोई कारण नहीं है। मैं भी
अगवानसे भिन्न नहीं हूँ और ये भी मुझसे एद् नहीं हैं,
ऐसा रुमझकर भेद उत्पन्न करनेयाली बह्म उपाधियोंद्य त्याग
करना और अधिक प्रेमसे भगवत्-स्वरूपछा चिन्तन करते
रइना--पह अद्वैत ( निगुंणा ) नामवाली भक्ति है; जो
मुक्तिक! साक्षात् साधन दे । यड् अस्पन्त दुर्लभ दे ।*
अब मैं भगवान् विष्णुके भरताश्च छक्षण यत्त हूँ---
जिनका चित्त अत्यन्त शान्त दै, जो सबके प्रति कोमल माव
रखते हैं, विन्दोंने स्ये>आनुसार अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त
कर छी दे तथा जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी दूसरोंसे
द्रोह कटने क इच्छा नहीं रखते, जिनका चित्त दयासे दरषीभूत
होता है; जो चोरी और दिखाते सदा ही भख मोदे रहते हैं,
सदुयुणोंके संप्रह तथा दूसरोंके करार्यलाधनमें जो प्रसन्नता-
पूर्षक संर रते दें; शदाचारसे जिनका जीवन सदा उज्ज्यछ
( निष्कलङ्क ) बना रहता है, जो दूसरोंके उत्छवको अपना
उत्सव मानते है, सब प्राणियोंके भीतर मगवान् कममुदेवकों
विराजमान देस्पकूर कमी किसीसे द्या द्वेप नहीं रखते,
दीनोंपर दया फरना जिनका स्वभाव वन गया है और जो सदा
# जगच्चेदं अगद़ायों नान्दशचापि च कर्णम् ॥
हुईं च न ततो भिन्नो मत्तोऽसी न पृथफ तः ।
दाने गहिस्पाधीनां प्रमोत्कपेण माननम्॥
दुहुंभ्य भक्तिरेषा दि मुक्तवे:औैक्संबिता ॥
(स्क ३० इ० १० । ८१-- ८८)