अतिसर्गपर्य, द्वितीय खण्ड ]
* सत्व-धर्मके आश्रयसे सबका उद्धार *
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श्वं पुत्री कलावतीके साथ अपने वस्न्र-आभूषण तथा मकान
बेचकर जैसे-तैसे जीवन-यापन करने लगी।
एक दिन उसकी कन्या कलावती भूखसे व्याकुल होकर
किसी ब्राह्मणके घर गयी और वहाँ उसने ऋद्यणको भगवान्
सत्यनाशयणकी पूजा करते हुए देखा। जगन्नाथ सत्यदेवकी
प्रार्था करते हुए देखकर उसने भी भगवानसे प्रार्थना
कौ--'हे सत्यनारावणदेव ! मेरे पिता और पति यदि घरपर
आ जार्येणे तो मैं भी आपकी पूजा कहूँगी।' उसकी बात
सुनकर ब्राह्मणोने कहां--'ऐसा ही होगा। इस प्रकार
ब्राह्मणोंसे आश्चासनयुक्त आशीर्वाद प्राप्त कर वह अपने घर
वापस आ गयी। रत्रिमे देरसे लौटनेके कारण माताने उससे
डाँटते हुए पूछा कि 'बेटी ! इतनी राततक तुम कहाँ रही ?'
इसपर उसने उसे प्रसाद देते हुए सत्यनारायणके पूजा-
यृ्तन्तको बताया और कहा--'माँ! मैंने वहाँ सुना कि
भगवान् सत्यनारायण कलियुगमें प्रत्यक्ष फल देनेवाले हैं,
उनकी पूजा मनुष्यगण सदा करते है । माँ ! मैं भी उनकी पूजा
करना चाहती हूँ, तुम मुझे आज्ञा प्रदान करो । मेरे पिता और
स्वामी अपने घर आ जार्यै, यही मेरी कामना है।'
रातमें ऐसा मनम निश्षयकर प्रातः वह कलावती
शीलपाल नामक एक वणिक्के घरपर धन प्राप्त करनेकी
इच्छसे गयी और उसने कहा--'बन्धो ! थोड़ा धन दें,
जिससे मैं भगवान् सत्यनारायणकी पूजा कर सकूँ।' यह
सुनकर शीलपालने उसे पाँच अशर्फियाँ दौ ओर कहा--
“कलावती ! तुम्हारे पिताका कुछ ऋण शेष था, मैं उन्हें ही
वापस कर रहा हूँ, इसे देकर आज मैं उक्रण हो गया।' यह
कहकर शौलपाल गया-तीर्थमें श्राद्ध करने चला गया । कल्याने
अपनी माँ लीलावतीके साथ उस द्रव्यसे कल्याणप्रद सत्य-
नारायण-श्रतका श्रद्धा-भक्तिसे विधिपूर्वक अनुष्ठान किया ।
इससे सत्वनारायण भगवान् संतुष्ट हो गये ।
उधर नर्मदा-तटयासी राजा अपने रजमहलमे सो रहा
था। रात्रिके अन्तिम प्रहरमें ब्राह्मण-वेषधारी भगवान्
सत्यनारायणने स्वप्रमें उससे कहा--'राजन् ! तुम शीघ्र
उठकर उन निर्दोष वणिकॉक् बन्धनमुक्त कर दो। वे दोनों
बिना अपराधके ही बंदी बना लिये गये हैं। यदि तुम ऐसा नहीं
करोगे तो तुम्हारा कल्याण नहीं होगा।' इतना कहकर वे
अन्तर्हित हयो गये। राजा निद्रासे सहसा जग उठा। वह
परमात्पाका स्मरण करने लगा। प्रातःकाल राजा अपनी सभामें
आया और उसने अपने मन्त्रीसे देखे गये स्वप्रका फल पूछा ।
महामन्त्रीने भी राजासे कहा--“राजन् ! बड़े आश्चर्यकी बात
है, मुझे भी आज ऐसा ही स्वप्न दिखलायी पड़ा। अतः उस
वणिक् और उसके जामाताकों बुलाकर भलीभाँति पूछ-ताछ
कर लेनी चाहिये।' जाने उन दोन्ेको बंदी-गृहसे बुलवाया
और पूछा--'तुम दोनों कहाँ रहते हो और तुम कौन हो ?'
इसपर साधु वणिक्ने कहा--'राजन्! मैं रपुरका निवासी
एक वणिक् हूँ। मैं व्यापार करनेके लिये यहाँ आया था। पर
दैववश आपके सेवकॉने हमें चोर समझकर पकड़ लिया।
साथमे यह मेरा जामाता है। बिना अपराधके ही हमें
मणि-मुक्ताकी चोरी लगी है। राजे ! हम दोनों चोर नहीं है ।
आप भलीभाँति विचार कर लें।' उसकी बातें सुनकर राजाकों
बड़ा पश्चात्ताप हुआ उन्होंने उन्हें बन्धनमुक्त कर दिया । अनेक
प्रकारसे उन्हें अलंकृत कर भोजन कराया और वश, आभूषण
आदि देकर उनका सम्मान किया। साधु वणिक्ने कहा--
"राजन् ! मैने कारागारम अनेक कष्ट भोगे हैं, अब मैं अपने
नगर जाना चाहता हूँ, आप मुझे आज्ञा दें।' इसपर राजाने
अपने कोषाध्यक्षके माध्यमसे साधु वणिक््की नौका रन्न
आदिसे परिपूर्ण करवा दी। फिर वह साधु वणिक् अपने
जामाताके साथ गाजाद्रारा सम्मानित हो द्विगुणित धन लेकर
रत्रपुस्की ओर चला।
साधु बणिक्ने अपने नगरके लिये प्रस्थान किया, पर
भगवान् सत्यनारायणका पूजन वह उस समय भी भूल गया।
भगवान् सत्यदेवने जो कलियुगमें तत्काल फल देते हैं, पुनः
तपस्वीका रूप धारणकर वहाँ आकर उससे पूछा--“साथो !
तुम्हारी इस नौकामें क्या है ?' इसपर साधु वणिक्ने उत्तर
दिया--'आपको देनेके लिये कुछ भी धन मेरे पास नहीं है।
नावमें केवल कुछ लताओकि पतते भरे पड़े हैं।' साधु वणिक्के
ऐसा कहनेपर तपस्वीने कहा--'ऐसा ही होगा ॥ इतना कहकर
तपस्वी अन्तर्धान हो गये। उनके ऐसा कहते ही नौकामें धनके
बदले केवल पत्ते हौ दीखने लगे। यह सब देखकर साधु
अत्यन्त चकित एवं चिन्तित हो गया, उसे मूच्छ -सी आ गयी ।
वह अनेक प्रकारसे विलाप करने लगा । वज्रपात होनेके समान