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२०.२ सामवेद-संहिता

१७७२. तुविशुष्म तुविक्रतो शचीवो विश्वया मते । आ पप्राथ महित्वना ॥८॥

महान्‌ शक्तिमान्‌, बहुत से उत्तम कर्म करने वाले, पूज्य इन््रदेव ! आप सब प्रकार की महिमा से युक्त होकर

संसार भर मे संव्याप्त रहते है ॥८ ॥

१७७३. यस्य ते महिना महः परि ज्मायन्तमीयतुः । हस्ता व्रं हिरण्ययम्‌ ॥९॥

हे इन्द्रदेव (महान्‌ शक्तिशाली) आपके हाथ, सर्वत्रव्यापक, गतिशील, स्वर्णयुक्त (सोने की तरह

देदीप्यमान) वज्र को धारण करने वाले है ॥९ ॥

१७७४. आ यः पुरं नार्भिणीमदीदेदत्यः कविर्नभन्यो नार्वा ।

सूरो न रुरुक्वां छतात्मा ॥१० ॥

जो अग्नि यजमानों द्वारा निर्मित यज्ञ वेदियों को परदीप्त करती है । जो द्रुतगामी घोड़ों और वायु के सदृश

गति वाली तथा दूरद्रष्टा है। वे अनेक रूपों में (विद्युत्‌, प्रकाश, ऊर्जा आदि) सुशोभित अग्निदेव सूर्य के सदृश

तेजोमय हैं ॥१० ॥

१७७५. अभि द्विजन्मा त्री रोचनानि विश्वा रजांसि शुशुचानो अस्थात्‌ ।

होता यजिष्ठो अपां सधस्थे ॥११॥

दो अरणिवो से उत्पन हुई यह अग्नि (त्रि-रोचनानि) तीन स्थानों (पृथ्वी, अन्तरिक्ष, चुलोक) ओर सब लोकों

को प्रकाशित करते हुए देवों को बुलाने वाली है । वह पूज्य अग्नि जल मे (वडवाग्नि के रूप मे) अथवा यज्ञशाला

में यज्ञाग्नि के रूप में रहने वाली है ॥११ ॥

[ नि-रोचनानि-गार्हपत्य, आहवनीय आवसथ्य |]

१७७६. अयं स होता यो द्विजन्मा विश्वा दथे वार्याणि श्रवस्या ।

मर्तो यो अस्मै सुतुको ददाश ॥१२॥

दो अरणियों से उत्पन्न हुए अग्निदेव का आवाहन करने (बुलाने) वाला, सब श्रेष्ठ धन ओर यशस्वी कर्मों

का धारक है । वह अग्नि, अपने याजको को उत्तम सन्तान प्रदान करने वाली है ॥१२ । ।

१७७७. अम्ने तमद्याश्वं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रं हृदिस्पृशम्‌ । ऋध्यामा त ओहैः ॥१३

हे अग्ने ! इन्द्रादि देवों को प्राप्त होने वाले शरष्ठ वाहन, अश्व के सदृश हवि को उन्हें पहुँचाने वाले; यज्ञ के

समान कल्याणकारी और हृदय ग्राही आपको स्तोत्रों अथवा आहुतियों से और अधिक प्रखर बनाते है ॥१३ ॥

१७७८. अथा हामेे क्रतोर्भद्रस्य दक्षस्य साधोः । रथीरऋतस्य बृहतो बभूथ ॥१४॥

हे अग्निदेव | कल्याणकारी, बलवर्द्धक, अभीष्ट प्रदान करने वाले ओर सत्यस्वरूप आप महान्‌ यज्ञ के मुख्य

आधारकेर्ता हैं ॥१४ ॥

१७७९. एभिर्नो अरकैर्भवा नो अर्वाङ्कस्वरेर्णं ज्योति: ।

अग्ने विश्वेभिः सुमना अनीकैः ॥९५ ॥

व अग्निदेव । पूर्वं के समान तेजस्वी, श्रेष्ठमना, आप हमारे पूज्य इन्द्रादि देवों के साथ हमारे पास (यज्ञ मे)

॥१५ ॥

॥इति प्रथमः खण्डः ॥

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