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* पुराणं परं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

वह स्तग्ध होकर सोचने लगा कि मैं अब क्या करूँ ? कहाँ

जाऊँ 2 मेश धन कहाँ चला गया ? जामाताके समझाने-

बुझानेपर इसे तपस्वीका शाप समझकर वह पुनः उन्हीं

तपस्वीकी शरणम गया और गलेमें कपड़ा लपेटकर उस

तपस्वीको प्रणाम कर कहा--'महाभाग ! आप कौन है?

कोई गन्धर्व हैं या देवता हैं या साक्षात्‌ परमात्मा है ? प्रभो !

मै आपकी महिमाको लेशमात्र भी नहीं जानता। आप मेरे

अपराधोंको क्षमा कर दें और मेरी नैकाके धनको पुनः पूर्ववत्‌

कर दें ।' इसपर तपस्वौ-रूप भगवान्‌ सत्यनारायणने कहा कि

तुमने चन्द्रचूड़ ग़जाके सत्यनारायणके मण्डपमे “संततिके प्राप्त

होनेपर भगवान्‌ सत्यदेवकी पूजा करूँगा'-- ऐसी प्रतिज्ञा की

थी। तुम्हें कन्या प्राप्त हुई, उसका विवाह भी तुमने किया,

व्यापारसे धन भी प्राप्त किया, बंदी-गृहसे तुम मुक्त भी हो

गये, पर तुमने भगवान्‌ सत्यनारायणकी पूजा कभी नहीं की ।

इससे मिध्याभाषण, प्रतिज्ञालोप और देवताकी अवज्ञा आदि

अनेक दोष हुए, तुम भगवान्‌का स्मरणतक भी नहीं करते।

इसी कारण हे मूढ ! तुम कष्ट भोग रहे हो। सत्यनारायण-

भगवान्‌ सर्वव्यापी हैं, वे सभी फलॉक् देनेवाले हैं। उनका

अनादर कर तुम कैसे सुख प्राप्त कर सकते हो। तुम

भगवान्‌कों याद करो, उनका स्मरण करो ।' इसपर साधु

वणिक्को भगवान्‌ सत्यनारायणका स्मरण हो आया और वह

पश्चाताप करने लगा। उसके देखते-ही-देखते वहाँ वे तपस्वी

भगवान्‌ सत्यनारायणरूपमें परिवर्तित हो गये और तब वह

उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा--

"सत्यस्वरूप, सत्यसंध, सत्यनारायण भगवान्‌ हरिको

नमस्कार है । जिस सत्यसे जगत्की प्रतिष्ठा है, उस सत्यस्वरूप

आपको बार-बार नमस्कार है । भगवन्‌ ! आपकी मायासे

मोहित होनेके कारण मनुष्य आपके स्वरूपको जान नहीं पाता

और इस दुःखरूपी संसार-समुद्रको सुख मानकर उसीमें लिप्त

रहता है। धनके गर्वसे नै मूढ होकर मदान्धकारसे कर्तव्य और

अकर्तव्यकी दृष्टिसे शून्य हो गया। मैं अपने कस्याणको भी

नहीं समझ पा रहा हूँ। मेरे दौरात्य-भावके लिये आप क्षमा

करें। हे तपोनिधे ! आपको नमस्कार है। कृपसागर ! आप

मुझे अपने चरणोंका दास बना लें, जिससे मुझे आपके चरण-

कमलोका नित्य स्मरण होता रहे! ।'

इस प्रकार स्तुति कर उस साधु वणिकूने एक लाख

मुद्रासे पुरोहितके द्वात घर आकर सत्यनाययणकी पूजा करनेके

लिये प्रतिज्ञा की। इसपर भगवानने प्रसन्न होकर कहा---

"वत्स ! तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी, तुम पुत्र-पौत्रसे समन्वित

होकर श्रेष्ट भोगोको भोगकर मेरे सत्यलोके प्राप्त करोगे

और मेरे साथ आनन्द प्राप्त करोगे।' यह कहकर भगवान्‌

सत्यनारायण अन्तर्हित हो गये और साधुने पुनः अपनी यात्रा

आरम्भ की।

सत्यदेव भगवानसे रक्षित हो वह साधु वणिक्‌ एक

सप्ताहमें नगरके समीप पहुँच गया और उसने अपने

आगमनका समाचार देनेके लिये घरपर दूत भेजा । दूतने घर

आकर साधु वणिक्‌की खी लीलावतीसे कह्म--जामाताके

साथ सफलमनोरथ साधु वणिक्‌ आ रहे हैं।' वह साध्वी

लीलावती कल्याके साथ सत्यनारायण भगवानकी पूजा कर

रही थी । पतिके आगमनको सुनकर उसने पूजा वहॉँपर छोड़

दी और पूजाका शेष दायित्व अपनी पुत्रीको सौपकर वह

शीघ्रतासे नौकाके समीप चली आयी। इधर कलावती भी

अपनी सखियोकि साथ सत्यनारायणकी जैसे-तैसे पूजा

समाप्तकर बिना प्रसाद लिये ही अपने पतिको देखनेके लिये

उतावली हो नौकाकी ओर चली गयी।

भगवान्‌ सत्यनारायणके प्रसादके अपमानसे जामाता-

सहित साधु वणिक्‌की नौका जलके मध्य अलक्षित हो गयी।

यह देखकर सभी दुःखमें निमग्न हो गये। साधु वणिक्‌ भी

मूर्छित हो गया। कलावती भी यह देखकर मूर्च्छित हो

पृथ्वीपर गिर पड़ी और उसका सारा शरीर आँसुओंसे भींग

१-सात्यरूपे सत्वसन्थै॑ सत्यनारायण॑ हरिम्‌ । यत्सत्वत्वेन जगतस्ते सत्ये त्वां नमाम्यहम्‌ ॥

त्वष्यायामोहितात्पानो न पश्य्ल्यात्न: शुभम्‌ । दुःखाम्भोधौ सदा मग्रा दुःखे च सुखमानिनः ॥

मृोऽह॑ धनावैन मदान्धीकृतल्केवनः । न जाने स्वात्मनः क्षेम कथे पश्यामि मूदधीः ॥

क्षमस्व मम दौरात्प्य॑ तपोधाप्रे हरे नमः ।आज्ञापयात्मदास्थ मे येन ते चरणौ स्पे ॥

(प्रतिसर्गफर्व २।२९।४८-- ५१)

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