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अध्याय १४७ ]

इरयो वाली उस कन्याके सामने स्वयं मैं नियन्त्रित-

रूपसे प्रकट हुआ, अतः तबसे मैं " हषीकेश'

नामसे यहाँ स्थित हुआ*। फिर मैंने उससे

कहा--' बाले ! तुम्हारी इस उत्तम तपस्यासे मैं पूर्ण

संतुष्ट हूँ। तुम्हारे मनमें जो कुछ बात हो, वह

मुझसे वररूपमें माँग लो। अन्य किन्हीं व्यक्तियोंके

लिये जो अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसा अदेय वर भी

मैं तुम्हें इस समय देनेके लिये तत्पर हूँ।'

तब "रुरु" नामकौ उस दिव्य कन्याने मुझ

श्रीहरिकी बारंबार प्रणाम-स्तुति की ओर कहा--

"जगत्पते! आप यदि मुझे वर देना चाहते हैं तो

देवाधिदेव ! आप इसी रूपसे यहाँ विराजनेकी

कृपा कीजिये।' तब मैंने उससे कहा-' बाले!

तुम्हारा कल्याण हो। मैं तो यहीं हूँ, अब तुम

मुझसे कोई अन्य वर भी माँग लो।' इसपर उसने

43०८ अगर ५

"गोनिष्क्रमण'-तीर्थं और

धरणीने कहा--भगवन्‌! आपकी कृपासे

मैंने रुरुक्षेत्र हषीकेशकी महिमाका वर्णन सुना।

देवेश! अब जो अन्य पावन क्षेत्र हैं, उन्हें

बतानेकी कृपा कीजिये।

भगवान्‌ वराह कहते हैं--देवि! हिमालय-

पर्वतके शिखरपर मेरा एक क्षेत्र है, जिसका नाम

है--“गोनिष्क्रमण', जहाँ पहले सुरभी आदि गौएँ

समुद्रसे तैरकर बाहर निकली थीं। बहुत पहले

"ओर्वनाम' से प्रसिद्ध एक प्रजापति थे, जिन्होंने

यहाँ दीर्घ कालतक निष्कामभावसे तपस्या की

थी। वसुंधरे! कुछ दिनोकि बाद जिस ऊँचे

पर्वतपर वे तपस्या कर रहे थे, फलों एवं फूलोंसे

परिपूर्ण लक्ष्मी भी वहाँ प्रकट हो गयीं। अतः

वहाँ कुछ और तपस्वी ब्राह्मण आ गये। इसी

* 'गोनिष्क्मण '-तीर्थ और उसका पाहात्प्य *

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मुझे प्रणाम कर कहा--'देवेश! आप यदि मुझपर

प्रसन हैं तो आप ऐसी कृपा करें कि यह क्षेत्र मेरे

ही नामसे प्रसिद्ध हो जाय--इसके अतिरिक्त मेरी

अन्य कोई अभिलाषा नहीं है ।' सुभगे! तब मैंने

कहा--' देवि! ऐसा ही होगा, तुम्हारा यह शरीर

सर्वोत्तम तीर्थं होगा ओर यह समस्त क्षेत्र भी तुम्हारे

ही नामसे विख्यात होगा । साथ ही जो मनुष्य इस

तीर्थे तीन रातोंतक निवास एवं स्नान करेगा, वह

मेरे दर्शनसे पवित्र हो जायगा-इसमें कोई संशय

नहीं । उसके जाने-अनजाने किये गये सभी पाप नष्ट

हो जायँंगे--इसमें कोई संदेह नहीं ।'

देवि! इस प्रकार 'रुर'को वर देकर मैं वहीं

अन्तर्धान हो गया ओर वह भी समयानुसार

पवित्र तीर्थं बन गयी।

[अध्याय १४६]

उसका माहात्स्य

भगवान्‌ शंकर भी आ गये। एक बार ओर्वमुनि

जब कुछ कमलपुष्पोंके लिये हरिद्वार गये थे कि

महादेवने अपने उग्र तेजसे ओर्वमुनिके उस प्रिय

आश्रमको भस्म कर दिया और फिर वहाँसे

यथाशीघ्र अपने वासस्थान हिमालयपर चले गये।

देवि! ठीक उसी समय मुनिवर ओर्व पत्र-पुष्पकी

टोकरी लिये हरिद्वारसे अपने उस आश्रमपर आ

गये। यद्यपि मुनि शान्त एवं मृदु स्वभावके

क्षमाशील एवं सत्यत्रतमें तत्पर रहनेवाले थे,

तथापि प्रभूत फूलों, फलों एवं जलोंसे सम्पन्न

उस आश्रमकों दग्ध हुआ देखकर वे क्रोधसे भर

गये। दुःखके कारण उनकी आँखें डबडबा गयीं

और क्रोधसे भरकर उन्होंने यह शाप दिया--

"प्रचुर फूलों, फलों और उदकोंसे सम्पन्न मेरे इस

समय कहींसे घूमते हुए वहाँ महान्‌ तेजस्वी | आश्रमको जिसने जलाया है, वह भी दुःखसे

* हुषोकाणि नियम्याहं यतः प्रत्यक्षतां गत:। 'हृषोकेश' इति ख्यातों नाम्ना तत्रैव संस्थितः # { बराहपुरान १४६॥७३)

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