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अध्याय ६३ ]

मोक्षोऽमुना यद्यपि मोहनीयो

मोक्षेऽपि कि कारणमस्ति राज्ये।

क्षेत्र

परिहत्य_ द्वारे

कि नाम चारण्यकृषिं करोति॥२३

संसारदुःखोपहता नरा ये

कर्तुं समर्थां न च किंचिदेव।

अकर्षिणो भाग्यविवर्जिताश्च

वाञ्छन्ति ते मोक्षपथं विमूढाः ॥ २४

सस्मार मारममराधिपचक्रवतीं ॥ २५

समागतोऽसौ परिमन्दमन्दं

कामो डे

पुरा महेशेन कृताडुनाशो

धैर्याह्नयं गच्छति को विशङ्कः ॥ २६

आदिश्यतां नाथ यदस्ति कार्यं

को नाम ते सप्रति शत्रुभूतः।

शीघ्रं समादेशय मा विलप्य

तस्यापदं सम्प्रति भो दिशामि॥ २७

जगाद वाक्यं स विहस्य वीरः॥ २८

येनार्शरीरमात्र-

श्चक्रेऽप्यनङ्घत्वमुपागतेन |

सोदु समर्थोऽथ परोऽपि लोके

को नाम ते मार शराभिधातम्‌॥ २९

संधाय वाणं कुसुमायुधोऽपि

सस्मार मारः परिमोहनं सुभीः॥ ३९

{ 3 ] न० पुर १०

२६७

मोक्ष-सुख तो इस राज्य-भोगद्वारा मोह लिया जा सकता

है, परंतु क्या मोक्ष भी राज्य-प्राप्तिका कारण हो सकता

है ? भला, अपने ट्वारपर पके अन्नसे युक्त खेतकों छोड़कर

कोई जंगलमें खेती करने क्यों जायगा ? जो सांसारिक

दुःखसे मारे-मारे फिरते हैं और कुछ भी करनेकी शक्ति

नहीं रखते, वे हौ अकर्मण्य, भाग्यहीन एवं मूढजन

मोक्षमार्गको इच्छा करते हैं'॥१८--२४॥

इन सब बातोंपर आरंयार विचार करके देवेश्वरोंके

चक्रवर्ती सम्राट्‌ बुद्धिमान्‌ वीरवर इन्द्र कुबरेरपत्री

चित्रसेनाके रूपपर मोहित हो गये। समस्त मानसिक

वेदनाओंसे व्याकुल हों, धैर्य खोकर थे क्ामदेवका

स्मरण करने लगे। इन्द्रक स्मरण करनेपर अत्यन्त

कामनाओंसे व्याप्त चित्तवृत्तिवाला कामदेव बहुत धीरे-

थोरे डरता हुआ यहाँ आया; क्योंकि वहीं पूर्वकाले

शंकरजोने उसके शरीस्को जलाकर भस्म कर दिया था।

क्यों न हो, प्राणसंकटके स्थानपर धीरतापूर्यक और

निर्भव होकर कौन जा सकता है? कामदेवने आकर

कहा--' नाथ! मुझसे जो कार्य लेना हो, आज्ञा कीजिये;

बताइये तो सही, इस समय कौन आपका शत्रु बना हुआ

है? शौप्र बताइये, विलम्ब न कोजिये; मैं अभी उसे

आपत्तिमें डालता हूं ' ॥ २५- २७४

उस समय कामदेवके उस पनोधिराम वचनको सुनकर

मन-ही-मन उसपर विचार करके इन्द्र बहुत संतुष्ट हुए।

अपने मनोरथको सहसा सिद्ध होते जान वीरवर इन्द्रने

हँसकर कहा--“कामदेव! अन्गं बन जानेपर भी तुमने

जब शंकरजोको भी आधे शरोरका जना दिया, तब

संसारे दूसय कौत तुम्हे उस शरघातको सह सकता

है? अनङ्ग ! जो गिरिजापूजनमें एकाग्रचित्त होनेपर भी मेरे

मनको निश्चय ही मोहे लेतो है, उस विशाल नयनोंवालो

सुन्दरीको तुम एकमात्र मेरे अङ्ग-सन्गकौ सरस भावनासे

युक्त कर दो ' ॥ २८-३०॥

अपने कार्यको अधिक महत्य देनेवाले सुरराज इन्धके

यों कहनेपर उत्तम चुद्धिवाले कामदेवने भौ अपने पुष्पम

धनुषपर बाण रखकर योहन -मन्त्रका स्मरण किया।

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