भूमिका
ढंग से हो गया कि उनके नाम भी विस्मृति के गर्त में
विलीन हो गये ।
आजकल प्रपंच हदय, दिव्यावदान, चरण-
व्यूह तथा जैमिनि गृह्य सूत्र को देखने पर १३
शाखाओं का पता चलता है। सामतर्पण के
अवसर पर इन आचार्यों के नाम तर्पण का विधान
मिलता है । इन तेरह में से तीन आचार्यो की शाखाएँ
मिलती है (९) कौधुमीय (२) राणायनीय
*(३) जैमिनीय ।
एक बात ध्यान देने लायक है कि पुराणों में
उदीच्य तथा प्राच्य सामर्गो के वर्णन होनें पर भी
इन दिनों उत्तर व पूर्वी भारत मे साम शाखाओं का
प्रचार देखने मे नहीं आता है, लेकिन दक्षिण व पश्चिम
भारत में आज भी इन शाखाओं का थोड़ा-बहुत
स्वरूप देखने को मिल जाता है । संख्या तथा प्रचार
की दृष्ट से कौधुम शाखा विशेष महत्त्व की है । इसका
प्रचलन गुजरात के ब्राह्मणो में विशेषकर नागर
ब्राह्मणो में देखने को मिलता है । राणायनीव शाखा
पहाराष्ट भे, जैमिनीय शाखा कर्नाटक तथा सुदूर
दक्षिण के तिनेवली प्ट तंजौर जिले में देखने को
ज़रूर मिलती है; परन्तु इसके अनुयायी कौधुमों की
अपेक्षा बहुत कम है ।
(१) कौथुम शाखा- आद्य शंकराचार्य ने
वेदान्त भाष्य के अनेक स्थानों पर इसका नाम निर्देशन
किया है। इसी से इसके गौरव व महत्त्व का पता
चलता है । इसी की संहिता सर्वाधिक लोकप्रिय है ।
पच्चीस काण्डात्मक विपुलकाय ताण्ड्य ब्राह्मण इसी
शाखा का है ।
(२) राणायनीय शाखा-- इसको संहिता
कौधुमों जैसी ही है। मंत्र गणना को दृष्टि भी
दोनों में समान है। सिर्फ उच्चारण में कहीं-कहीं
भिनता देखने को मिलती है। कौधुमीय लोग
जहाँ 'हाऊ' तथा "राई" कहते हैं, वहाँ राणायनीय
गण “हावु' तथा "रावी" का प्रयोग करते हैं। इनकी
एक अवान्तर शाखा “सात्यमुप्रि' है, जिसको एक
उच्चारण विशेषता भाषा विज्ञान की नजर से
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ध्यान देने योग्य है । आपिशली शिक्षा में-'छान्दो-
गानां सात्यमुप्रि राणायनीया हस्वानि पठन्ति' कह-
कर तथा महाभाष्यकार ने स्पष्ट निर्देश दिवा है कि
सात्यमुप्रि लोग एकार तथा ओकार का हस्व उच्चारण
किया करते थे ।
आधुनिक भाषाओं के जानकारों को यह
याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि प्राकृत
भाषा तथा आधुनिक प्रांतीय अनेक भाषाओं में ए
तथा ओ का उच्चारण हस्व भी किया जाता
है । यह विशेषता इतनी प्राचीन है, इसे भाषा विज्ञानी
समझ सकते ह ।
(३) जैमिनीय शाखा- इस मुख्य शाखा
के समग्र अंश काफी प्रयलों के बाद आज
उपलब्ध हो सके हैं। संहिता, ब्राह्मण, श्रौत तथा
गृह्य सुत्र-इनकी खोज निश्चित ही सराहनीय
है। जैमिनीय संहिता में मंत्रों की संख्या
१६८७ है। अर्थात् इसमें कौथुम शाखा से १८२
मंत्र कम हैं। दोनों में कई तरह के पाठ भेद भी
है। उत्तरार्चिक में कई ऐसे नवीन मंत्र हैं, जो
कौथुमीय संहिता में नहीं मिलते हैं। परन्तु जैमि-
नीयों के सामगान कौथुमों से लगभग एक हजार
अधिक है । कौथुम गान सिर्फ २७२२ हैं, जबकि
जैपिनि गान ३६८१ है ।
ब्राह्मण तथा पुराणों के अध्ययन से पता
चलता है कि साममंत्रों-उनके पदों तथा सामगानों
की संख्या आज के उपलब्ध अंशो से बहुत
अधिक थी । शतपथ में साममंत्रों के पदों की गणना
चार सहस्र बृहती बतलाई गई है--- यथा-अथेतरौ
वेदौ व्योहत। द्वादशैव वृहती सहस्राणि अष्टौ यजुषा
चत्वारि साप्नाम् (वृह० १०.४.२.२ ३) अर्थात् ४०००
> ३६ = १,४४.००० । इस तरह साम मंत्रों के पद
एक लाख चौवालीस हजार थे । पूरे सामों को संख्या
थी आठ हजार तथा गायनों की संख्या थी चौदह
हजार आठ सौ बीस । अनेक स्थलों पर बार-बीर
उल्लेख होने से इसकी प्रामाणिकता पर संदेह नहीं
किया जा सकता ।