पूर्वभागे द्वितीयोऽध्यायः
ये यजति जवैहेपिर्दवदेवं महेश्वरम॥ १६॥
स्वाध्यायेनेज्यया दूरात्रान् प्रयल्लेन वर्ज्जय।
भक्तियोगसमायुक्तानोश्वरा्ितिमानसान्॥ १७॥
प्राणायापादिषु रतान्दूरात्परिहरामलानू!
जो लोग जप, होम, स्वाध्याय तथा यज्ञ के द्वारा
देवाधिदेव महे शव का यजनं करते हैं, उन्हें यलपूर्वक दूर से
हो छोड़ दे। भक्तियोग से समाहित चित्तवाते और ईश्वर के
प्रति समर्पित पन वाते, तथा शुद्ध चित वालों को दूर से ही
त्याग दो।
प्रणवासक्तमनसरो रुद्रजप्यपरायणान्॥ १८॥
अधर्वशिरसो वेन् धर्मज्नान्यरिवर्ज्जय।
प्रणव जप में आसक्त मन वाते, सट करा जप करने में
तत्पर, अधर्ववेद के सम्पूर्ण ज्ञाता तथा धर्मज्ों को छोड़ दो।
वहूनात्र कियुक्तेन स्वधर्षपरिषालकान्॥ १९॥
ईश्वराराघनरतान्मत्रियोगान्र मोहया
एवं मया भहामाया परेरिता हरिवल्लभा॥ २०॥
यहाँ बहुत अधिक क्या कहा जाय? अपने धर्म का
परिपालन करने वाले तथा ईश्वर की आयाधना में निरत लोगों
को मेरे आदेश से मोहित न करो। इस प्रकार हरिवल्लभा
महामाया भेर द्वारा हो प्रेरित हुईं थीं।
यथादेशं चकारासौ तस्पाल्लक्ष्मी सपर्च्ययेत्।
ब्रियं ददाति विपुलां पुष्ट मेधां यशो द्ल्॥ २ श॥
अचिता भगवत्यलीं तस्माल्लक्ष्मौ समर्चवेत्।
ततो5सृजत्स भगवान् ब्रह्मा लोकपितामह:॥ २२॥
उसने मेरे आदेशानुसार कार्य क्रिया। इसलिए लक्ष्मी को
पूजा कटनौ चाहिए। पूजित होने पर बह लक्ष्मों बिपुल धन,
समृद्धि, बुद्धि, यश तथा बल प्रदात करतौ है। इसलिए
विष्णुपत्नो लक्ष्मी को अर्चना करनी चाहिए। अनन्तर लोक
पितामह भगवान् ब्रह्मा ने सूह प्रारम्भ की धी।
चराचराणि भूतानि यथापूर्व ममाज़्या।
मरीविभृष्व्गिरमं पुलस्त्यं पुलहं ऋतुम्॥२३॥
दक्षमत्रिं वसिष्ठञ्च सोऽसुजोगविदया।
नवैते ब्रह्मणः पुत्रा ब्राह्मणा द्राह्मणोत्तमाः॥ २४॥
ब्रह्मवादिन एवैते परीच्याष्टास्तु साधका:।
ससर्ज ज्राह्मणाययत्रात् कषत्रियाश धुजाहिधु:॥ २५॥
वैश्वानूरदरयाहेवः पदभ्वां शरान् पितापहः।
यज्ञनिष्पत्तये ब्रह्मा शुद्र ससर्ज ह॥ २६॥
पूर्ववत् मेरी आज्ञा से ब्रह्मा ने स्यावर-जंगम तथा
नानाविध प्राणियों को सृष्टि की। तत्पश्रात् योगविद्या से
मरोचि, भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, दक्ष, अत्रि और
वसिष्ठ कौ सृष्टि को। ये नौ ब्रह्मा के पुत्र ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मणों में
श्रेष्ठ ब्राह्मण है। ये मरीचि आदि साधक ब्रह्मवादी हो थे।
ब्रह्म ने ब्राह्मणों को मुख से और श्षत्रियों को भुजा से उत्पन्न
किया। पितामह ब्रह्मा ने वैश्यों को दोनों जंघाओं से तथा
शूद्रो को देव ने पैरों से उत्पन्न किया।' तदनन्तर यज्ञ के
सम्पादन हेतु ब्रह्मान ने शूद्रहित (तोनों बर्णों को) सृष्ट
की।
गुप्ये सर्वदेवानां तेभ्यो यज्ञो हि निर्वभौ।
ऋचो यजूंषि सामानि तथैबाथर्वणानि च॥ २७॥
ब्रह्मणः सहजं रूपं नित्वैषा शक्तिरव्यया।
अनादिनिथना दिव्या भागुत्सृष्टा स्वयप्भुवा॥ २८॥
सभौ देवो की रक्षा के लिए उन्होंने यज्ञ की सृष्टि की।
तदनन्तर ऋषवेद्, यजुर्वेद, सापवेद और अधवंवेद कौ रचना
को। ये सव ब्रह्मा के सहज रूप हैं। यह नित्य एवं
अविनाशो शक्ति है। ब्रह्म ने आदि और अन्त रहित
(बेदमयो) दिव्यवाणौ कौ सृष्टि को।
आदौ वेदमयी भूता यतः सर्वाः प्रवृत्तयः।
ततोऽन्यानि हि शारखराणि परधिव्यां याति कानिचित्॥ २९
न तेषु एपते धीरः पाषण्डी रमते शुध:।
वेदार्थविततपैः कार्य यततं मुनिभिः पुरा॥३०॥
स ज्ञेयः परमो धर्मो नान्यज्ञास्त्रेषु संस्थित:।
या वेदवाद्ना स्मृतयो याश्च कच्छ कदृष्टवः॥ ३ शा
सर्वास्ता निष्फला; प्रेत्व तमोनिष्ठा हि ता: स्मृताः।
ूर्वकल्य प्रजा जाताः सर्ववाधाविवर्म्जिता:॥ ३२॥
आदि में यह वेदमयी वाणी ही थी, जिससे सभी प्रवृ्तियां
हुई हैं। इससे अन्य पृथ्वी पर जो कोई शाख हैं उनमें धीर
विदान् रमण नहीं करते, पाषण्डी विद्वान् हो रमण कर्ता है।
पूर्वकाल में वेदार्थविद् मुनियों ने जिस कार्य का स्मरण
किया था उसे परम धर्म समझना चाहिए, जो अन्य शाखो में
है उसे नहों। जो वेद-विरुद्ध स्मृतियाँ हैं और जो कोई
कुदृष्टियाँ हैं मरणोपरान्त उसका कोई फल नहो मिलता
].ब्राह्मणोउस्य मुखमासीदबाहू राजन्यः कृतः। करू तदस्य
यट्वैश्य: पद्ध शुरो जायत (यजु० ३१.११)