काण्ड-११ सूक्त-२ ९
हे रुद्रदेव ! प्रातः, सायं, रात्रि और दिन सभी कालों में आपके प्रति हमारा प्रणाप दै । भव और
शर्वं दोनों देवो के प्रति हम नमस्कार करते हैं ॥१६ ॥
३०४०. सहस्राक्षमतिपश्यं पुरस्ताद् स्द्रमस्यन्तं बहुधा विपश्चितम् ।
मोपाराम जिद्वयेयमानम् ॥९७ ॥
हजारों नेत्रों से युक्त, अति सूक्ष्मद्रष्टा, पूर्व की ओर अनेक बाण छोड़ने वाले मेधावी और जिह्वा से सम्पूर्ण
विश्व के भक्षणार्थ सर्वत्र संव्याप्त रुद्रदेव के समीप हमारा गमन न हो ॥१७ ॥
३०४१. श्यावाश्व॑ कृष्णमसितं मृणन्तं भीमं रथ॑ केशिनः पादयन्तम्।
पूर्वे प्रतीमो नमो अस्त्वस्मै ॥१८ ॥
अरुण वर्ण के अश्रयुक्त काले अपवित्र के मर्दक, उन भयंकर महाकाल को, जिन्होंने (केशी नापक राक्षस
के) रथ को घराशायी किया धा, उन्हें हम पहले से जानते हैं- वे हमारा प्रणाम स्वीकार करें ॥१८ ॥
३०४२. मा नोऽभि स्रा मत्यं देवहेति मा नः क्रुधः पशुपते नमस्ते ।
अन्यत्रास्मद् दिव्यां शाखां वि धूनु ॥१९ ॥
हे पशुपतिदेव ! अपने आयुध हमारी ओर न फेंके । आप हमारे ऊपर क्रोधित न हो, आपके प्रति हमारा
नप्रस्कार है । अपने देवार को हमसे दूर फेंके ॥१९ ॥
३०४३. मा नो हिंसीरधि नो बरूहि परि णो वृङ्ग्धि मा क्रुधः । मा त्वया समरामहि ॥
आप हमारी हिंसा न करें, हमें ( अच्छे - बुरे के सम्बन्ध में ) समझाएँ । हमारे ऊपर क्रोधित न होकर संरक्षण
बनाये रखें । आपके प्रति कभी हमारा विरोध न रहे ॥२० ॥
३०४४. मा नो गोषु पुरुषेषु मा गृधो नो अजाविषु ।
अन्यत्रोग्र वि वर्तय पियारूणां प्रजां जहि ॥२१॥
हे उग्रवीर ! आप हमारे गौ, मनुष्य, भेड़-बकरियों की कामना न करे । आप अपने शस्त्र को अन्यत्र
देवहिंसकों की प्रजा पर छोड़कर उनका विनाश करें ॥२६ ॥
३०४५. यस्य तक्मा कासिका हेतिरेकमश्वस्येव वृषण: क्रन्द एति।
अभिपूर्व॑ निर्णयते नमो अस्त्वस्मै ॥२२॥
जिन रुद्रदेव के आयुध क्षय, ज्वर और खाँसी है, बलशाली घोड़े के हिनहिनाने के समान ही पूर्व लक्षित
मनुष्य के प्रति जिनके आयुध जाते हैं, उन उप्र रुद्रदेवता के लिए हमारा नमस्कार है ॥२२ ॥
३०४६. योडेन्तरिक्षे तिष्ठति विष्टधितोऽयज्वनः प्रमृणन् देवपीयून् ।
तस्मै नमो दशभिः शक्वरीभिः ॥२३ ॥
जो (रुद्रदेव) अन्तरिक्ष मण्डल मे विराजमान रहते हुए यज्ञभाव से विहीन देवविरोधियों को नष्ट करते हैं,
हम उन रुद्रदेव के लिए दसो शक्तियों (अँगुलियों ) के साथ प्रणाम करते है ॥२३ ॥
३०४७. तुभ्यमारण्याः पशवो मृगा वने हिता हंसाः सुपर्णाः शकुना वयांसि ।
तब यक्षं पशुपते अप्स्व न्तस्तुभ्यं क्षरन्ति दिव्या अपो वृधे ॥२४ ॥
हे पशुपतिदेव ! जंगली मृगादि पशु, हस, गरुड़, शकुनि ओर अन्य वनचर पक्षी आदि आपके ही, हैं !