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+ 'भविष्यपुराण'--एक परिचय » ११

पिता विश्रवा मुनि वहां आते हैं और वैदिक स्तोत्रोंसे

कथा एवं ्िव-पार्यतीके विवाहका वर्णन हुआ है। अन्तिम

अध्यायोंमें मुगल बदरा तथा अंग्रेज शासकोंकी भी चर्चा

हुई है। मुगल बादशाहोंमें बाबर, हुमायूँ, अकबर, शञाहजहाँ,

जहीर, औरंगजेब आदि प्रमुख शासकोंका वर्णन मिलता है।

उद्रपति शिवाजीकी वीरताका भी वर्णन प्राप्त है। इसके साथ

ही विकटोरियाके दासन और उसके पार्लियामेंटका भी उल्लेख

है। विवरोरियाको यहाँ विकटावतीके नामसे कहा गया है।

कलियुगके अन्तिम चरणमें नरकोंके भर जानेकी गाथा भी

मिलती है। सभी नरक मनुष्योंसे परिपूर्ण हो जाते हैं

तथा नस्कोंमें अजीर्णता आ जाती है। अत्तमें कलियुगके

सामान्यधर्मके वर्णनके साथ इस पर्वका उपसंहार किया

गया है।

इस पुराणकं अन्तिम पर्व है उत्तरपर्व । उत्तरपर्वमे मुख्य

रूपसे त्रत, दान और उत्सवोकि वर्णन प्राप्त होते है । ब्रतोंकी

अद्भुत धूब्डलाका प्रतिपादन यहाँ हुआ है । प्रत्येक तिथियों,

मासो एवं नक्षत्रोंके व्रतो तथा उन तिथियों आदिके अधिष्ठातृ-

देवताओका वर्णन, ब्रतकी विधि और उसकी फलश्रुतियोंका

बड़े विस्तारसे प्रतिपादन किया गया है।

उत्तरपर्वकि प्रारम्भमें श्रीनारदजीकों भगवान्‌ श्रीनागयण

विष्णुपायाका दर्शन कराते हैं। किसी समय नारदमुनिने

श्ेतद्वीपमे भगवान्‌ नारायणका दर्शनकर उनकी मायाको

देखनेकी इच्छा प्रकट की । नारदजीके बार-बार आग्रह करनेपर

श्रीनारायण नारदजीके साथ जम्बूद्वीपमें आये और मार्गमे एक

युद्ध ब्राह्मणणा रूप धारण कर लिया। विदिशा नाएरीमें

धन-धान्यसे समृद्ध, उद्यमी, पश्ुपालनमें तत्पर, कृषिकार्यको

भल्मीभाँति करनेवात्त्र सीरभद्र नामका एक वैद्य निवास करता

था, वे दोनों सर्वप्रथम उसीके घर गये। उस वैरयने उनका

यथोचित सत्कारकर भोजनके लिये पूछ | यह सुनकर युद्ध

ब्राह्मफकूपधारी भगवानने हँसकर कहा-- तुमको अनेक

पुत्र-पौत्र हों, तुम्हार खेती और पश्चुधनकी नित्य वृद्धि हो यह

मेयर आशीर्वाद है।' यह कहकर ये दोनों वहाँसे चल पड़े।

मार्गमें गड्ञाके तटपर गाँवमें गोस्वामी नामका एक दरिद्र ब्राह्मण

रहता था। वे दोनों उसके पास पहुँचे, वह अपनी खेती

आदिकी चिन्तामे लगा था। भगवानने उससे कहा-- हम

तुम्हरे अतिथि हैं और भूखे हैं, अतः भोजन कराओ।' उस

ग्राह्मणने दोनोंको अपने घरपर लाकर ख्रान-भोजन आदि

कराया, अनन्तर उत्तम दाय्यापर शयन आदिकी व्यवस्था की ।

प्रातः उठकर भगवानते ब्राह्मणसे क्य-- हम तुम्हारे घरमें

सुखपूर्वक रहे, परमेश्वर करे कि तुम्हारी खेती निष्फल हो,

तुम्हारी संततिकी वृद्धि न हो' इतना कहकर वे वहाँसे चले

गये। यह देखकर नारदजीने आश्चर्यचकित होकर पूछा--

"भगवन्‌ ! बैश्यने आपकी कुछ भी सेवा नहीं की, परंतु आपने

उसे उत्तम वर दिया, किंतु इस ब्राह्मणने श्रद्धासे आपकी बहुत

सेवा की, फिर भी उसे आपने आशीर्वादके रूपमे शाप ही

दिया--ऐसा आपने क्यो किया 2' भगवानने कहा--“नारद !

वर्षभर मछरी पकड़नेसे जितना पाप होता है, एक दिन हल

जोतनेंसे उतना ही पाप होता है। वह वैश्य अपने पुत्र-पौन्रोंके

साथ इसी कृषि-कार्यमें लगा हुआ है। हमने न तो उसके घरमे

विश्राम किया और न भोजन ही किया, इस ब्राह्मणके घरमें

भोजन और विश्राम किया। इस ब्राह्मणको ऐसा आज्ञीर्वाद

दिया कि जिससे यह जगज्जालमें न फैसकर मुक्तिक प्राप्त कर

सके । इस प्रकार बातचीत करते हुए वे दोनों आगे बढ़ने लगे ।

आगे चलकर भगवानूते नारदजीको कान्यकुब्जके सरोवरमें

अपनी मायासे स्नान कराकर एक सुन्दर स््रीका स्वरूप प्रदान

किया तथा एक राजासे विवाह कणकर पुत्र-पौत्रोंसे सम्पन्न

जगज्ञारूकी मायामे लिप्त कर दिया तथा कुछ समय बाद पुनः

आरदजीकों अपने स्वाभाविक रूपमे त््रकर भगवान्‌ अन्तर्हित

हो गये । नास्दजीने अनुभव किया कि इस मायाके प्रभावसे

संसारके जीव, पुत्र, खी. धन आदिमे आसक्त हो गेते-गाते हुए

अनेक प्रकारकी चेष्टा करते है । अतः मनुष्यको इससे

सावधान रहना चाहिये ।

इसके बाद संसारके दोषोकः विस्तारपूर्वक वर्णन किया

गया दै । महाराज युधिष्ठिर भगवान्‌ श्रीकृष्णसे प्रश्न करते हैं,

यह जीव किस कर्मसे देवता, मनुष्य और परु आदि योनियोंमें

उत्पन्न होता है ? झुभ और अशुभ फलका भोग यह कैसे

करता है ? इसका उत्तर देते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं कि

उत्तम कर्मे देवयोनि, मिश्रकर्मसे मनुष्ययोनि और णापकर्मसे

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