प्रयाण किया। कौसल्याने समझा, महाराज शोकसे
आतुर हैं; इस समय नींद आ गयी होगी। ऐसा | तो श्रीरामचन्द्रजीको ही राजा मानता हूँ। अब उन्हें
विचार करके वे सो गयीं। प्रातःकाल जगानेवाले
सूत, मागध और बन्दीजन सोते हुए महाराजको
जगाने लगे; किंतु वे न जगे॥ ३४--४२॥
तब उन्हें मरा हुआ जान रानी कौसल्या
"हाय! मैं मारौ गयी ' कहकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं ।
फिर तो समस्त नर-नारी फूट-फूटकर रोने लगे।
तत्पश्चात् महर्षि वसिष्ठने राजाके शवको तैलभरी
नौकामें रखवाकर भरतको उनके ननिहालसे
तत्काल बुलवाया। भरत और शततुध्न अपने
मामाके राजमहलसे निकलकर सुमन्त्रे आदिके
साथ शीघ्र ही अयोध्यापुरीमे आये। यहाँका
समाचार जानकर भरतको बड़ा दुःख हुआ।
कैकेयीको शोक करती देख उसकी कठोर
शब्दोंमें निन्दा करते हुए बोले-'अरी! तूने मेरे
माथे कलङ्कृका टीका लगा दिया-मेरे सिरपर
अपयशका भारी बोझ लाद दिया।' फिर उन्होंने
कौसल्याकी प्रशंसा करके तैलपूर्ण नौकामें रखे
हुए पिताके शवका सरयूतटपर अन्तयेष्टि- संस्कार
किया। तदनन्तर वसिष्ठ आदि गुरुजनोनि कहा-
* भरत! अब राज्य ग्रहण करो ।' भरत बोले--' मैं
यहाँ लानेके लिये बनमें जाता हूँ।' ऐसा कहकर वे
बहाँसे दल-बलसहित चल दिये और शृङ्गवेरपुर
होते हुए प्रयाग पहुँचे। वहाँ महर्षि भरद्वाजने उन
सबको भोजन कराया। फिर भरद्वाजको नमस्कार
करके वे प्रयागसे चले और चित्रकूटमें श्रीराम
एवं लक्ष्मणके समीप आ पहुँचे। वहाँ भरतने
श्रीरामसे कहा--' रघुनाथजी ! हमारे पिता महाराज
दशरथ स्वर्गवासी हो गये। अब आप अयोध्यामें
चलकर राज्य ग्रहण करें। मैं आपकी आज्ञाका
पालन करते हुए बनमें जाकँगा।' यह सुनकर
श्रीरामने पिताका तर्पण किया और भरतसे
कहा--'तुम मेरी चरणपादुका लेकर अयोध्या
लौट जाओ। मैं राज्य करनेके लिये नहीं चलूँगा।
पिताके सत्यकी रक्षाके लिये चीर एवं जटा धारण
करके वनमें ही रहूँगा।' श्रीरामके ऐसा कहनेपर
सदल-बल भरत लौट गये और अयोध्या छोड़कर
नन्दिग्राममें रहने लगे। वहाँ भगवान्की चरण-
पादुकाओंकी पूजा करते हुए वे राज्यका भली-
भाँति पालन करने लगे ॥ ४३-५१॥
इस प्रकार आदि आग्नेव महापुराणमें 'रामायण-कथाके अन्तर्गत अयोध्याकाण्डकी
कथाका वर्णन नामक छठा अध्याय पूरा हुआ॥ ६ ॥
/>०८> पक 440००
सातवाँ अध्याय
अरण्यकाण्डकी संक्षिप्त कथा
नारदजी कहते हैं--मुने! श्रीरामचन्द्रजीने
महर्षि वसिष्ठ तथा माताओंको प्रणाम करके उन
सबको भरतके साथ विदा कर दिया। तत्पश्चात्
महर्षि अत्रि तथा उनकी पत्नी अनसूयाको,
शरभङ्गमुनिको, सुतीक्ष्णको तथा अगस्त्यजीके
भ्राता अग्निजिह्न मुनिको प्रणाम करते हुए
श्रीरामचन्द्रजीने अगस्त्यमुनिके आश्रमपर जा उनके
चरणोंमें मस्तक झुकाया और मुनिकी कृपासे
दिव्य धनुष एवं दिव्य खड्ग प्राप्त करके वे
दण्डकारण्यमें आये। वहाँ जनस्थानके भीतर
पञ्चवटी नामक स्थानम गोदावरीके तटपर रहने
लगे। एक दिन शूर्पणखा नामवाली भयंकर
राक्षसी राम, लक्ष्मण और सीताकों खा जानेके
लिये पञ्चवटी आयी; किंतु श्रीरामचन्द्रजीका
अत्यन्त मनोहर रूप देखकर वह कामके अधीन
हो गयी और बोली॥ १--४॥