अध्याय ३ ] * शंकरजीका ग्रह्महत्यासे छूटनेके लिये तीथॉमें भ्रमण; बदरिकाअममें नारायणकी स्तुति * ११
सव्यादन्या द्वितीया च असिरित्येव विश्रुता ।
ते उभे तु सरिच्छ्रेष्ठे लोकपृज्ये बभूवतुः ॥ २८
ताभ्यां मध्ये तु यो देशस्तक्क्षेत्रे योगशायिनः ।
त्रैलोक्यप्रवरं तीर्थ सर्वपापप्रमोचनम्।
न तादृशोऽस्ति गगने न भूम्यां न रसातले ॥ २९
तत्रास्ति नगरी पुण्या पुण्या ख्याता वाराणसी शुभा।
5पीश प्रयान्ति भवतो लयम्॥ ३०
रशनास्वनेन
श्रुतिस्वनै््राह्मिणपुंगवानाम् ।
निशम्य
चुन ॥ ३१
शुचिस्वरत्वं
हास्यादशासन्त॒ मुहु
व्रजत्सु योषित्सु
पदान्यलक्तारुणितानि दूषट्ठा।
ययौ शशी विस्मयमेव यस्यां
किंस्वित् प्रयाता स्थलपद्मिनीयम्॥ ३२
ते
भङ्गाश्च यस्यां शशिकान्तभित्तौ
प्रलोभ्यमाना
आलेख्ययोषिद्विमलाननाब्जे-
ष्वीयुरभमानैव च पुष्पकान्तरम्॥ ३४
परिभ्रमंश्चापि पराजितेषु
नेषु संमोहनलेखनेन ।
जलक्रीडनसंगतासु
न स्त्रीषु शंभो गृहदीर्धिकासु॥ ३५
न चैव कश्चित् परमन्दिराणि
रुणद्धि शंभो सहसा ऋतेऽश्षान्।
न॒ चावबलानां तरसा पराक्रमं
करोति यस्यां सुरतं हि मुक्त्वा ॥ ३६
पाशग्रन्धिर्गजेन्राणां दानच्छेदो मदच्युतौ ।
यस्यां
सब पापोंको हरनेवालौ एवं पवित्र है । वहीं उनके वाम
पादसे ' असि ' नामसे प्रसिद्ध एक दूसरी नदौ भी निकली
है। ये दोनों नदियाँ श्रेष्ठ एवं लोकपूज्य है ॥ २५--२८॥
उन दोनोंके मध्यका प्रदेश योगशायीका क्षेत्र है।
वह तीनों लोकॉमें सर्वश्रेष्ठ तथा सभी पापोंसे छुड़ा
देनेवाला तीर्थ है। उसके समान अन्य कोई तीर्थ
आकाश्ञ, पृथ्वी एवं रसातलमें नहीं है । ईश ! वहाँ पवित्र
शुभप्रद विख्यात वाराणसी नगरी है, जिसमें भोगी लोग
भी आपके लोकको प्राप्त करते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी
वेदध्यनि विलासिनी स्त्रियोकौ करधनौकौ ध्वनिसे
मिश्रित होकर मङ्गले स्वरका रूप धारण करतौ है । उस
ध्वनिको सुनकर गुरुजन बारंबार उपहासपूर्वक उनका
शासन करते हैं। जहाँ चौराहोंपर भ्रमण करनेवाली
स्त्रियोंके अलक्त (महावर)-से अरुणित चरणोंको देखकर
चन्द्रमाको स्थल-पद्चिनीके चलनेका भ्रम हो जाता है
और जहाँ रात्रिका आरम्भ होनेपर ऊँचे-ऊँचे देवमन्दिर
चद्धमाका (मानो) अवरोधं करते हैं एवं दिनमें पवनान्दोलित
(हवासे फहरा रही) दीर्घं पताकाओंसे सूर्य भी छिपे
रहते हैं॥ २९--३३॥
जिस (वाराणसी )-में चन्द्रकान्तमणिकी भित्तियॉपर
प्रतिबिम्बित चित्रमें निर्मित स्व्रियोंक निर्मल मुख-
कमलॉको देखकर भ्रमर उनपर भ्रमवश लुब्ध हो जाते
हैं और दूसरे पुरष्योकौ ओर नहो जाते। हे शम्भो! वहाँ
सम्मोहनलेखनसे पराजित पुरुषोंमें तथा घरकी यावलियोंमें
जलक्रौडाके लिये एकत्र हुईं स्त्ियोमे ही ' भ्रमण ' देखा
जाता है, अन्यत्र किसीको ' भ्रमण ' (चक्कर रोग) नहीं
होताः । चूतक्रोडा (जुभके खेल)-के पासोकि सिवाय
अन्य कोई भ दूसरेके ' पाश' (बन्धन) मेँ नहीं डाला
जाता तथा सुरत- समयके सिवाय स्तियोके साथ कोई
आवेगयुक्त पराक्रम नहीं करता। जहाँ हाथियोंके बन्धनमें
ही पाशग्रन्थि (रस्सीकी गाँठ) होती है, उनकी मदच्युतिमें
(मदके चूनेमें) ही " दानच्छेद ' (मदकी धाराका टूटना)
एवं नर हाथियोंके यौवनागमरमे हौ "मान" और "मद'
होते हैं, अन्यत्र नहीं; तात्पर्य यह कि दान देनेकी धारा
निरन्तर चलती रहती है और अभिमानी एवं मदवाले
यस्यां मानमदौ पुंसां करिणां यौबनागमे॥ ३७ | लोग नहीं हैं॥ ३४--३७॥
१, यहाँ सर्वत्र परिसंख्यालंकार है। परिसंख्यालंकार वहाँ होता है, जहाँ किसी यस्तुका एक स्थावसे निषेध करके उसका दूसरें
स्थानमें स्थापन हो। ऐसा बर्णन आनन्दरामायणके अयोध्या-वर्णनमें, कादम्बरीमे, कवशोखण्डमे करली आदिके वर्णने भी प्राप्त होता है।