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में० सुर १० १९

९०. सुतेसुते न्योकसे बृहद्‌ बृहत एदरिः। इन्द्राय शूषमर्चति ॥ १० ॥

सोम को सिद्ध (तैयार) करने के स्थान यज्ञस्थल पर यज्ञकर्ता, इन्दरदेव के पराक्रम कौ प्रशंसा करते है ॥१० ॥

[ सूक्त - १० |

[ऋषि -पधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता-इन्द्र । छन्द-अनुष्टप्‌ ]

९१. गायन्ति त्वा गायत्रिणो ऽर्चन्त्य्कमर्किणः । ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे ॥१॥

हे शतक्रतो (सौ यज्ञ या श्रेष्ठ कर्म करने वाले) इन्द्रदेव ! उद्‌गातागण (उच्च स्वर से गान करने वाले)

आपका आवाहन करते है । स्तोतागण पूज्य इन्द्रदेव का मंत्रोच््चारण द्वारा आदर करते है । बाँस के ऊपर कला

प्रदर्शन करने वाले नर के समान , ब्रह्मा नामक ऋत्विज्‌ श्रेष्ठ स्तुतियों द्वारा इन्द्रदेव को प्रोत्साहित करते हैं ॥९ ॥

९२. यत्सानोः सानुमारुहद्‌ भूर्यस्पष्ट कर्त्वम्‌। तदिन्ो अर्थं चेतति युथेन वृष्णिरेजति ॥२ ॥

जब यजमान सोमवल्ली, समिधादि के निषित्त एक पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर जाते है आर

' यजन कर्म करते हैं, तब उनके मनोरथ को जानने दाले इष्टप्रदायक इन्धदेव यज्ञ में जाने को उद्यत होते हैं ॥२ ॥

९३. युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा। अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुपश्रुतिं चर ॥३ ॥

है सोमरस ग्रहीता इन्द्रदेव आप लम्बे केशयुक्त, शक्तिमान्‌ , गन्तव्य तक ले जाने वाले दोनों घोड़ों को

रथ में नियोजित करें । तत्पश्चात्‌ सोमपान से तृप्त होकर हमारे द्वारा की गई प्रार्थनाएँ सुन ॥३ ॥

९४. एहि स्तोमां अभि स्वराभि गृणीह्या रुव । ब्रह्म च नो वसो सचेन्द्र यज्ञं च वर्धय ४ ॥

है सर्वनिवासक इन्द्रदेव ! हमारी स्तुतियों का श्रवण कर आप ठद्गाताओ, होताओं एवं अध्वर्युवो को

प्रशंसा से प्रोत्साहित करें ॥४ ॥

९५. उक्थमिन्द्राय शंस्यं वर्धनं परुनिष्यिधे शक्रो यथा सतेष्‌ णो रारणत्‌ सख्येषु च ॥५ ॥

हे स्तोताओ ! आप शत्रुसंहारक, सामर्थ्यवान्‌ इन्द्रदेव के लिये (उनके) यश को बढ़ाने वाते उत्तम स्तोत्रों का

पाठ करें, जिससे उनकी कृपा हमारी सन्तानो एवं मित्रों पर सदैव बनी रहे ॥५ ॥

९६. तमित्‌ सखित्व ईमहे तं राये तं सुवीर्ये । स शक्र उत न: शकदिन्द्रो वसु दयमान:॥६ ॥

हम उन इन्द्रदेव के पास मित्रता के लिये, घन -प्राप्ति और उत्तमबल - वृद्धि के लिये स्तुति करने जाते हैं ।

वे इन्द्रदेव बल एवं घन प्रदान करते हुए हमें संरक्षित करते हैं ॥६ ॥

९७. सुविवृतं सुनिरजमिन्ध त्वादातमिद्यश: | गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्विव:॥७ ॥

हे इद्धदेव ! आपके द्वारा प्रदत्त यश सब दिशाओं मे सुविस्तृत हुआ है । हे वन्रधारक इद्धदेव ! गौओ को

बाड़े से छोड़ने के समान हमारे लिये धन को प्रसारित करें ॥ ७ ॥

९८. नहि त्वा रोदसी उभे ऋषधायमाणमिन्वतः। जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मभ्यं धूनुहि॥८ ॥

है इनदरदेव ! युद्ध के समव आप के यश का विस्तार पृथ्वी और द्युलोक तक होता है । दिव्य जल - प्रवाहो

पर आपका हो अधिकार है । उनसे अभिषिक्त कर हमें तृप्त करें ॥८ ॥

९९. आश्रुत्कर्ण श्रुधी हवं नू चिहधिष्व मे गिरः ।

इन्द्र स्तोममिमं मम कृष्वा युजश्चिदन्तरम्‌ ॥ ९ ॥

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