पूर्वभाग-प्रथप पाट
मेरु पर्वत है, जो समस्त देवताओंका निवासस्थान
है । जहाँ पृथ्वीकी अन्तिम सीमा है, वहाँ लोकालोक
पर्वतकौ स्थिति है । मेरु तथा लोकालोक पर्वतके
बीचमें सात समुद्र और सात द्वीप हैं। विप्रवर!
प्रत्येक द्वीपमें सात-सात मुख्य पर्वत तथा निरन्तर
जल प्रवाहित करनेवाली अनेक विख्यात नदियाँ
भी हैं। वहाँके निवासी मनुष्य देवताओंके समान
तेजस्वी होते हैं। जम्बु. प्लक्ष, शाल्मलि, कुश,
क्रौञ्च, शाक तथा पुष्कर-ये सात द्वीपोंके नाम
हैं। वे सब-की-सब देवभूमिया हैं। ये सातो द्वीप
सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। क्षारोद, इक्षुरसोद,
सुरोद, घृत, दधि, दुग्ध तथा स्वाद् जलसे भरे हुए
वे समुद्र उन्हीं नामोंसे प्रसिद्ध हैं। इन द्वीपों और
समुद्रोंको क्रमशः पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर
दूने विस्तारवाले जानना चाहिये। ये सब लोकालोक
पर्वततक स्थित हैं। क्षार समुद्रसे उत्तर और
हिमालय पर्वतसे दक्षिणके प्रदेशको “भारतवर्ष '
समझना चाहिये! वह समस्त कर्मोका फल
देनेवाला है।
नारदजी ! भारतवर्षे मनुष्य जो सात्विक,
राजसिक और तामसिक तीन प्रकारके कर्म करते
हैं, उनका फल भोगभूमियोंमें क्रमश: भोगा जाता
है। विप्रवर! भारतवर्षमें किया हुआ जो शुभ
अथवा अशुभ कर्म है, उसका क्षणभन्नुर (बचा
हुआ) फल जो जीवोंद्वारा अन्यत्र भोगा जाता है।
आज भी देवतालोग भारतभूमिमें जन्म लेनेकी इच्छा
करते हैं। वे सोचते हैं, हमलोग कब संचित किये
हुए महान् अक्षय, निर्मल एवं शुभ पुण्यके फलस्वरूप
भारतवर्षकी भूमिपर जन्म लेंगे और कब वहाँ
महान् पुण्य करके परम पदको प्राप्त होंगे। अथवा
वहाँ नाना प्रकारके दान, भाँति-भाँतिके यज्ञ या
तपस्याके द्वारा जगदीश्वर श्रीहरिकी आगधना
करके उनके नित्यानन्दमय अनामय पदको कव
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प्राप्त कर लेंगे।! नारदजी ! जो भारतभूमिमें जन्म
लेकर भगबान् विष्णुकी आराधनामें लग जाता है,
उसके समान पुण्यात्मा तीनों लोकोंमें कोई नहीं
है। भगवानके नाम और गुणोंका कीर्तन जिसका
स्वभाव बन जाता है, जो भगबद्धक्तोंका प्रिय होता
है अथवा जो महापुरुषोंकी सेवा-शुश्रूषा करता है,
वह देवताओंके लिये भी वन्दनीय है। जो नित्य
भगवान् विष्णुकौ आराधनामें तत्पर है अथवा
हरि-भक्तोंके स्वागत-सत्कारमें संलग्र रहता है
और उन्हें भोजन कराकर बचे हुए ( श्रेष्ठ) अन्नका
स्वयं सेवन करता है, वह भगवान् विष्णुके परम
पदको प्राप्त होता है। जो अहिंसा आदि धर्मोके
पालने तत्पर होकर शान्तभावसे रहता है और
भगवान्के “नारायण, कृष्ण तथा वासुदेव” आदि
नामोंका उच्चारण करता है, वह श्रेष्ठ इन्द्रादि
देवताओंके लिये भी वन्दनीय है। जो मानव
"शिव, नीलकण्ठ तथा शङ्कुर" आदि नामोंद्वारा
भगवान् शिवका स्मरण करता तथा सदा सम्पूर्ण
जीर्वोके हितमें संलग्र रहता है, वह (भी)
देवताओंके लिये पूजनीय माना गया है। जो
गुरुका भक्त, शिवका ध्यान करनेवाला, अपने
आश्रम-धर्मके पालनमें तत्पर, दूसरोंके दोष न
देखनेवाला, पवित्र तथा कार्यकुशल है, वह भी
देवेश्वरोंद्वारा पूज्य होता है। जो ब्राह्मणोंका हित-
साधन करता है, वर्णधर्म और आश्रमधर्ममें श्रद्धा
रखता है तथा सदा वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर होता
है, उसे ' पर्ड्कक्तिपावन' मानना चाहिये। जो देवेश्वर
भगवान् नारायण तथा शिवे कोई भेद नहीं
देखता, वह ब्रह्माजीके लिये भी सदा वन्दनीय है;
फिर हमलोगोंकी तो बात ही क्या है ? नारदजी !
जो गौओंके प्रति क्षमाशील--उनपर क्रोध न
करनेवाला, ब्रह्मचारी, परायी निन्दासे दूर रहनेवाला
तथा संप्रहसे रहित है, वह भी देवताओंके लिये