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उमा और भारती (सरस्वती) आदि नाम देते हैं।
भगवान् विष्णुकी वह परा शक्ति जगत्की सृष्टि
आदि करनेवाली है । वह व्यक्त और अव्यक्तरूपसे
सम्पूर्णं जगत्को व्याप्त करके स्थित है। जो
भगवान् अखिल विश्वकी रक्षा करते हैं, वे ही
परम पुरुष नाराबण देव हैं। अतः जो परात्पर
अविनाशी तत्त्व है, परमपद भी बहौ है; बहौ
अक्षर, निर्गुण, शुद्ध, सर्वत्र परिपूर्णं एवं सनातन
परमात्मा हैं; वे परसे भी परे है । परमानन्दस्वरूप
परमात्मा सब प्रकारकी उपाधियोंसे रहित है ।
एकमात्र ज्ञानयोगके द्वारा उनके तत्त्वका बोध होता
है। वे सबसे परे हैँ । सत्, चित् ओर आनन्द ही
उनका स्वरूप है। वे स्वयं प्रकाशमय परमात्मा
नित्य शुद्ध स्वरूप है तथापि तत्व आदि गुणोंके
भेदसे तीन स्वरूप धारण करते हैं। उनके येही
तीनों स्वरूप जगत्कौ सृष्टि, पालन और संहारक
कारण होते है । मुने ! जिस स्वरूपसे भगवान् इस
जगतूकी सृष्टि करते हैं, उसीका नाम ब्रह्मा है । ये
ब्रह्माजी जिनके नाभिकमलसे उत्पन्न हुए हैं, वे ही
आनन्दस्वरूप परमात्मा विष्णु इस जगत्का पालन
करते हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। वे
सम्पूर्ण जगत्के अन्तर्यामी आत्मा हैं। समस्त
संसारमें वे ही व्याप्त हो रहे हैं। वे सबके साक्षी
तथा निरञ्जन हैं। वे ही भिन्न और अभिन्न रूपमें
स्थित परमेश्वर हैं। उन्हींकी शक्ति महामाया है,
जो जगत्की सत्ताका विश्वास धारण कराती है।
विश्वकी उत्पत्तिका आदिकारण होनेसे विद्वान्
पुरुष उसे प्रकृति कहते हैं। आदिसृष्टिके समय
लोकरचनाके लिये उद्यत हुए भगवान् महाविष्णुके
प्रकृति, पुरूष और काल--ये तीन रूप प्रकट होते
हैं। शुद्ध अन्तःकरणवाले ब्रह्मरूपसे जिसका साक्षात्कार
करते हैं, जो विशुद्ध परम धाम कहलाता है, वही
विष्णुका परम पद है। इसी प्रकार वे शुद्ध, अक्षर,
संक्षिम नारदपुराण
अनन्त परमेश्वर ही कालरूपमें स्थित हैं। वे ही
सत्त्व, रज, तम-रूप तीनों गुणोंमें विराज रहे हैं
तथा गुणोंके आधार भी वे ही हैं। वे सर्वव्यापी
परमात्मा हो इस जगत्के आदि-स्रष्टा हैं। जगद्गुरु
पुरुषोत्तमके समीप स्थित हुई प्रकृति जब क्षोभ
( चञ्चलता) -को प्राप्त हुई, तो उससे महत्तत्त्वका
प्रादुर्भाव हुआ; जिसे समष्टि-बुद्धि भी कहते हैं।
फिर उस महत्तत्त्वसे अहंकार उत्पन्न हुआ। अहंकारसे
सूक्ष्म तन्मात्रा ओर एकादश इन्द्रियाँ प्रकट हुईं।
तत्पश्चात् तन्मात्राओंसे पञ्च महाभूत प्रकट हुए, जो
इस स्थूल जगत्के कारण हँ । नारदजी ! उन
भूतोंके नाम है - आकाश, वायु, अग्नि, जल और
पृथ्वौ। ये क्रमशः एक-एकके कारण होते हैं।
तदनन्तर संसारकौ सृष्टि करनेवाले भगवान्
ब्रह्माजीने तामस सर्गकौ रचना कौ । तिर्यग् योनिवाले
पशु-पक्षी तथा मृग आदि जन्तुओंको उत्पन्न
किया। उस सर्गको पुरुपार्थका साधक न मानकर
ब्रह्माजीने अपने सनातन स्वरूपसे देवताओंको
(सात्विक सर्गको ) उत्पन्न किया । तत्पश्चात् उन्होंने
मनुष्योंकी (राजस सर्गकी) सृष्टि कौ । इसके बाद
दक्ष आदि पुत्रोंको जन्म दिया, जो सृष्टिक कार्यमें
तत्पर हुए। ब्रह्माजीके इन पुत्रोंसे देवताओं, असुरों
तथा मनुष्योंसहित यह सम्पूर्ण जगत् भरा हुआ है।
भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक,
तपलोक तथा सत्यलोक-ये सात लोक क्रमशः
एकके ऊपर एक स्थित हैं। विप्रवर! अतल, वितल,
सुतल, तलातल, महातल, रसातल तथा पाताले-ये
सात पाताल क्रमशः एकके नीचे एक स्थित हैं। इन
सब लोकोंमें रहनेवाले लोकपार्लोको भी ब्रह्मजीने
उत्पन्न किया। भिन्न-भिन्न देशेकि कुल पर्वतो और
नदिर्योकी भी सृष्टि को तथा बहाँके निवासि्योकि
लिये जीविका आदि सब आवश्यक वस्तुओंकी भी
यथायोग्य व्यवस्था की । इस पृध्वौके मध्यभागमें