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* पुराणौ परमं पुण्य भविष्य सर्वसौख्यटम्‌ «

गोरी) के दारा कोतुकोदीनको दिल्ली शासन सौपकर इस

देशसे धन सूटकर के जानेका विवरण प्राप्त होता है ।

प्रतिसर्गपर्वका अन्तिम चतुर्थ खण्ड है, जिसमे सर्वप्रथम

कलियुगमें उत्पन्न आरवंशीय राजाओंके वराको परिचय

मिलता है। तदनन्तर राजपूताना तथा दिल्ली नगरके

शाजबंशॉका इतिहास प्राप्त होता है। राजस्थानके मुख्य नगर

अजपेरकी कथा मिस्ती है। अजन्मा (अज) ब्रह्मके द्वारा

रचित होने तथा माँ लक्ष्मी (रमा) के शुभागमनसे र्य या

रमणीय इस नगरीका नाम अजमेर हुआ। इसी प्रकार राजा

जयसिंहने जयपुरको बसाया, जो भारतका सर्वाधिक सुन्दर

नगर माना जाता है। कृष्णवर्मकि पुत्र उदयने उदयपुर नामक

नगर बसाया, जिसका प्राकृतिक सौन्दर्य आज भी दर्शनीय है।

कान्यकुब्ज नगरकी कथा भी अद्भुत है। राजा प्रणयकी

तपस्यासे भगवती शारदा प्रसन्न होकर कत्यारूपमें वेणुवादन

करती हुईं आती हैं। उस कन्याने वरदानरूपमें यह नगर राजा

अणयको प्रदान किया, जिस कारण इसका नाम 'क्म्न्यकुब्ज'

पड़ा। इसी प्रकार चित्रकूटका निर्माण भी भगवतीके प्रसादसे

ही हुआ। इस स्थानकी विद्योषता यह है कि यह देवताओंका

प्रिय नगर है, जहाँ करिकर प्रवेद नहीं हो सकता । इसीलिये

इसका नाम "कलिजर' भी कहा गया है'। इसी प्रकार

बंगालके राजा भोगवमकि पुत्र कालिवर्माने महाकालीकी

उपासना की। भगवती कालीने प्रसन्न होकर पुष्पों और

कलियोकी वर्षा की, जिससे एक सुत्दर नगर उत्पन्न हुआ जो

करिवकातापुरी (कल्ककता) के नमसे प्रसिद्ध हुआ। चारों

कणेकि उत्पत्तिकी कथा तथा चा युगे मनुष्योंकी आयुका

निरूपण और फिर आगे चलकर दिल्ली नगरपर पठानोंका

सासन, तैमूरलंगके द्वारा भारतपर आक्रमण करने और

लूरनेकी क्रियाका वर्णन भी इसमें प्राप्त होता है।

कलियुगे अवतीर्णं होनेवाले विभिन्न आचार्यों-संतों

और भक्तोंकी कथाएँ भी यहाँ उपलब्ध हैं। श्रीदौकयचार्य,

याराहमिहिर, भरष्टोजि दीक्षित, धन्वन्तरि, कृष्णचैतन्यदेव,

श्रीरामानुज, श्रीमध्व एवं गोरखनाथ आदिका विस्तृत चरित्र

यहाँ वर्णित है। प्रायः ये सभी सूर्यके तेज एवं अदासे ही उत्पन्न

बताये गये हैं। भविष्यपुराणमें इन द्वाददादिस्यके अवतारके

रूपमें प्रस्तुत किया गया है । कलियुगमें धर्मरक्षार्थ इनका

आविर्भाव होता है। विभिन्न सम्प्रदायोंकी स्थापनामें इनका

योगदान है। इन प्रसंगोमें प्रमुखता चैतन्य महाप्रभुकरे दी गयी

है। ऐसा भी प्रतीत होता है कि श्रीकृष्णचैतन्यने बहासूत्र, गीता

या उपनिषद्‌ किसीपर भी साम््रदायिक दृष्टिसे धाष्यकी रचना

नहीं की थी और न किसी सम्प्रदायकी ही अपने समयमें

स्थापना की थी। उदार-भावसे नाम और गुणकीर्तनपे विभोर

रहते थे। भगवान्‌ जगत्राधके द्वारपर ही खड़े होकर उन्होंने

अपनी जीवनछीस्प्रको श्रीविग्रहमें स्जीन कर दिया। साथ ही

यहाँ संत सूरदासजी, तुकसीदासजी, कबीर, नरसी, पीपा,

जानक, रैदास, नामदेव, रंकण, धत भगत आदिकी कथाएँ भी

हैं। आनन्द, गिरी, पुरी, वन, आश्रम, पर्वत, भारती एवं नाथ

आदि दस नामी साधुओंकी व्युत्पत्तिका कारण भी लिख है।

भगवती महाकाल तथा दुण्डिराजकी उत्पत्तिकी कथा भी

मिलती है।

भगवान्‌ गणपतिको यहाँ परन्रह्मरूपमें चित्रित किया गया

है। भृतधावन सदाशिवकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवती

पार्वतीके पुत्ररूपमें जनम सेनेका उन्हें वर प्रदान किया।

तदनन्तर उन्होंने भगवान्‌ शिवके पुत्ररूपमें अवतार धारण

किया। इसमें रावण एवं कुम्भकर्णक जभकी कथा, रुद्रावतार

श्रीहनुमान्‌जौकी रोचक कथा भी मिलती है। केसरीकी पत्नी

अजनीके गर्भसे श्रीहनुमत्त्मलजी अकतार धारण करते हैं।

आके उगते हुए सार सूर्यको देख फल समझकर उसे

निगलनेका प्रयास करते है । सूर्यके अभावमें अन्धकार देखकर

इन्द्रने उसकी हनु (दुदी) पर क्त्रसे प्रहार किया, जिससे

हनुमानकी ठुड्डी टेढ़ी हो जाती है और वे पृथ्वीपर गिर पड़ते

हैं, जिससे उनका नाम हनुमान्‌ पड़ा । इसी बीच रावण उनकी

पूँछ पकड़कर लटक जाता है। फिर भी उन्होंने सूर्यको नहीं

छोड़ा। एक वर्षतक रावणसे युद्ध होता रहा। अच्तमें रावणके

१-जारे. चिहकूटाराी चक्र कलिनिर्जा्‌ । कतिर्यत्र भवेट्लद्धो कारेअश्पिन्‌ सुरक्षिये ॥

अतः कॉलिजो.. का प्रसिद्धो्फ्कहीतले।

(प्रतिसर्गपर्व ४।४। ३-४)

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