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१५२ ऋण्वेद संहिता भाग-९

११५७. सुपर्णा एत आसते मध्य आरोधने दिवः।

ते सेधन्ति पथो वृकं तरन्तं यह्वतीरपो विक्तं मे अस्य रोदसी ॥११ ॥

यह जो उत्तम पंख (किरणो) वाला पक्षी (सूर्य) दिव्यलोक के मध्य भाग में स्थित है, व्यापक जल रूपौ रात्रि

(अज्ञानान्थकार में तैरने वाले (षनुष्य) को, प्रकाश (ज्ञान) का मार्ग प्रशस्त कर भेड़ियों (काम्‌, क्रोध, लोभ आदि)

से बचाये । हे द्यावापृधिवि |आप हमारी इस प्रार्थना पर ध्यान दें ॥११ ॥

[ पुष्य भव सागर भे नैर रहा है । अज्ञान रूपी बरूर भेड़िया उसे खा जाना चाहता है, ज्ञान रर्यो क्र अज्ञान का निवारण

करके मनुष्य को भयमुक्त करतो हैं। |

११५८. नव्यं तदुक्थ्यं हितं देवास: सुप्रवाचनम्‌ ।

ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१२ ॥

हे देवो ! ये नवीन स्तोत्र प्रशंसनीय, गाने योग्य और कल्याणकारक हैं । नदियाँ ऋतु (दिव्य अनुशासन) के

अनुरूप चलने के लिए प्रेरित करती हैं और सूर्य देव सत्य के उद्घोषक हैं । हे द्यावापृथिवी देवि ! हमारी प्रार्थना

के अभिप्राय को समझें ॥१२ ॥

११५९. अग्ने तव त्यदुक्थ्यं देवेष्वस्त्याप्पम्‌।

स नः सत्तो मनुष्वदा देवान्यक्षि विदुष्टरो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१३ ॥

हे अग्निदेव ! देवताओं के साथ आपका बन्धुत्व भाव प्रशंसनीय है । ऐसे विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न आप मनुष्यों

के समान हमारे यज्ञ मे पधारकर्‌, देवताओं को हमारे यज्ञ मे आवाहित करें । हे द्यावापृधिवी देवि ! आप हमारी

प्रार्था के अभिप्राय को समझें ॥६३॥

११६०. सत्तो होता मनुष्वदा देवां अच्छा विदुष्टरः ।

अग्निर्हव्या सुषूदति देवो देवेषु मेधिरो वितं मे अस्य रोदसी ॥१४ ॥

मनुष्यों के समान यज्ञ में विराजमान, ज्ञानवान्‌ होता और देवताओं में विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न वे अग्निदेव देवों

के लिए हविष्यान् पहुँचाते हैं । हे द्युलोक व पृथिवी देवि ! हमारे इस जिज्ञासा भाव को समझें ॥१४ ॥

११६१. ब्रह्मा कृणोति वरुणो गातुविदं तमीमहे ।

व्यूर्णोति इदा मतिं नव्यो जायतापृतं वित्त मे अस्य रोदसी ॥९५ ॥

मंत्र रूपी स्तोत्र की रचना वरुणदेव करते दै । हप स्तुति मंत्रों से मार्गदर्शक प्रभु की प्रार्थना करते हैं । वे

हृदय से सद्बुद्धि को प्रकट कर देते है, जिससे नवीन सत्य का मार्ग प्रशत्त होता है । हे द्यावापृथिवी देवि ! आप

हमारी इस प्रार्थना पर ध्यान दें ॥१५ ॥

११६२. असौ यः पन्था आदित्यो दिवि प्रवाच्यं कृतः।

न स देवा अतिक्रमे तं मर्तासो न पश्यथ वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१६॥

हे देवो ! यह जो सूर्यदेव का प्रकाशरूपी मार्ग , दिव्य लोक में स्तुतिं के योग्य है , उसका उल्लंघन आपके

लिए उपयुक्त नहीं । हे मनुष्यो ! वह मार्ग सर्व साधारण की पहुँच से बाहर है । हे पृथिदी देवि ! आप हमारी

प्रार्थना के अभिप्राय को समझें ( उस मार्ग का बोध करायें ) ॥ १६ ॥

११६३. त्रितः कूपेऽवहितो देवान्हवत ऊतये ।

तच्छुश्राव बृहस्पति: कृण्वन्न॑हूरणादुरु विततं मे अस्य रोदसी ॥९७ ॥

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