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है । गायत्री देवी सौख्यायन गोज्रमें उत्पन्न हुई हैं। तीनों

स््रेक उनके तीन चरण है । पृथ्वी उनके उदरमें स्थित

है । चैरसे लेकर मस्तकतक शरीरके चौबीस स्थाने

गायत्रीके चौबीस अक्षरोका न्यास करके द्विज ब्रह्म-

ल्लेकको प्राप्त होता चै तथा प्रत्येक अक्षरके देवताका

ज्ञान प्राप्त करनेसे विष्णुका सायुज्य मिलता है। अब मैं

गायत्रीका दूसरा निश्चित लक्षण बतल्मता हूँ। वह

अठारह अक्षरोंका यजुर्मन्र दै । 'अग्नि' शब्दसे उसका

आरम्भ होता है और “स्वाहा' के हकारपर उसकी

समाप्ति। जलम खड़ा होकर इस मन््रका सौ बार जप

करना चाहिये। इससे करो पातक और उपपातक

नष्ट हो जाते है तथा जप करनेवाले पुरुष ब्रह्महत्या

आदि पापॉसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त होते है ।

वह मन्त्र इस प्रकार है --* ॐ अग्रेर्वाक्पुँसि यजुर्वेदिन

जुष्टा सोमं पिच स्वाहा" । इसी प्रकार विष्णु-मन्तर,

माहेश्वर महामन, देवीमन््र, सूर्यमन्त्र, गणेश-मन्त्र तथा

अन्यान्य देवताओकि मन्त्रोंका जप करनेसे भी मनुष्य

पापरहित होकर उत्तम गति पाता है। जिस किसी

कुलमें उत्पन्न हुआ ब्राह्मण भी यदि जप-परायण हो तो

यह साक्षात्‌ ब्रह्मस्वरूप है; उसका यत्रपूर्वक पूजन

करना चाहिये। ऐसे ब्राह्मणको प्रत्येक पर्वपर

विधिपूर्वकं दान देना चाहिये । इससे दाताको करोड़ों

जन्मोतक अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है । जो ब्राह्मण

स्वाध्यायपरायण होकर स्वयं पढ़ता, दूसरोको पढ़ाता

और संसारमें द्विजातियोंके यहाँ धर्म, सदाचार, श्रुति,

स्मृति, पुराण-संहिता तथा धर्मसंहिताका श्रवण कराता.

है, यह इस पृथ्वीपर भगवान्‌ श्रीविष्णुके समान है।

मनुष्यों और देवताओंका भी पूज्य है। उस तीर्थस्वरूप

और निष्पाप ब्राह्मणका बल अक्षय होता है। उसका

आदरपूर्वकं पूजन करके मनुष्य श्रीविष्णुघामको प्राप्त

होता है। जो द्विज गायत्रीके प्रत्येक अक्षरका उसके

देवतासहित अपने शरीरम न्यास करके प्रतिदिन

प्राणायामपूर्वक उसका जप करता है, यह करोड़ों

जन्मोंक किये हुए सम्पूर्ण पापोंसे छुटकारा पा

जाता है। इतना ही नहीं, वह ब्रह्मपदको प्राप्त होकर

प्रकृतिसे परे हो जाता है; इसप्यि नारद ! तुम

प्राणायामसहित गायत्रीका जप किया करो।

नारदजीने पृछा ~ ब्रह्मन्‌ | प्राणायामका

क्या स्वरूप है, गायत्रीके प्रत्येक अक्षस्के देवता

कौन-कौन हैं तथा शरीरके किन-किन अवयवॉमें

उनका न्यास किया जाता है ? तात ! इन सभी बातोंका

क्रमशः वर्णन कीजिये।

ब्रह्माजी बोले--पत्येक देहघारीके गुदादेशमें

अपान और हृदयमें प्राण रहता है; इसलिये गुदाको

सद्भुचित करके पूरक क्रियाके द्वारा अपान वायुको

प्राणवायुके साथ संयुक्त करे । तत्पश्चात्‌ बायुको रोककर

कुम्मक करे [और उसके बाद रेचककी क्रियाद्वारा

वायुको बाहर निकाले । पूरक आदि प्रत्येक क्रियाके

साथ तीन-तीन बार प्राणायाम-मन्त्रका जप करना

चाहिये] । द्विजको तीन प्राणायाम करके गायत्रीका जप

करना उचित है। इस प्रकार जो जप करता है, उसके

महापातकोंकी राशि भस्म हो जाती है। तथा दूसरे-दूसरे

पातक भी एक ही बारके मनन्‍्त्रोच्वारणसे नष्ट हो जाते

हैं। जो प्रत्येक वर्णके देवताका ज्ञान प्राप्त करके अपने

शरीरम उसका न्यास करता है, वह ब्रह्मभावको प्राप्त

होता है; उसे मिलनेवाले फलका वर्णन नहीं किया जा

सकता । बेटा! प्रत्येक अक्षरके जो-जो देवता हैं,

उनका वर्णन करता हूँ, सुनो । [इन अक्षरोंका जप

करनेसे ट्विजको फिर जन्म नहीं लेना पड़ता] । प्रथम

अक्षरके देवता अग्नि, दूसरेके वायु, तीसरेके सूर्य,

चौथेके वियत्‌ (आकाशञ्ञ), पाँचवेंके यमराज, छठेके

इन्द्र, दसवेंके गन्धर्व, ग्यारहवेंके पूषा, बारहवेंके मित्र,

तेरहवेंके त्वष्टा, चौदहवेंके वसु, पंद्रहवेंके मरुद्रण,

सोलहवेंके सोम, सतरहवेंके अङ्गिरा, अठारहवेंके

विश्वेदेव, उन्नीसवेंके अश्विनीकुमार, बीसवेंके प्रजापति,

इक्कीसवेंके सम्पूर्ण देवता, आईसवेंके रुद्र, तेईसवेंके

ब्रह्मा और चौबीसवेंके श्रीविष्णु हैं। इस प्रकार चौबीस

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