भाददेश्वरखण्ड-कुमारिकालण्ड ]
रहूँगा। इस प्रकार विचार करते हुए. नन्दभद्र कहीं खड़े
रटे । तत्पश्चात् उसके चौथे दिन कोई सात वर्षक बाछुक
पीढ़ासे पीड़ित होकर बहूदकके युल्द्र तटपर भाया । यह
बहुत ही दुर्बल तथा गिति कुछका रोगी था | उसे पग-वग-
पर पीढ़ाके मारे मूर्च्छा आ जाती थी । उस बाखकने यदे
क्लेशते अपनेको सेभाखकः् नन्दभद्रते कदा--^अदो ! आपके
तो समी अन्ग सुन्दर और स्वश्व टै, दिर भी आप दुरूरी
क्यों हैं!” उसके पूछनेपर नन्दभद्रने अपने बुर्का सव
कारण कह सुनाया । वह सथ सुनकर बालकने दुली दोफर
कहा--“अह्दो ! इस थातसे मुझे बड़ा भपक्कर कष्ट हो रहा है
कि विद्वान, पुरुप भी अपने क ल्व्यकों नदी समझ पाते हैं ।
जिसका शरीर सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे युक्त और स्वस्य रै, बह भी
व्यर्थ मरनेकी इच्छा रखता दै । अक्षे राजा खटूवाङ्गने दो
ही ष्ठी मोक्षका मार्ग प्रास्त कर छियां, उसी भारतवर्षको
आयु रहते कौन त्याग सकता टै । मैं तो अप्नेको ही टद्
मानता हूँ; क्योंकि मेरे माता-पिता कोई नहीं है, मुझमें
चटनेकी भी शक्ति नहीं है, तथापि मैं मरना नहीं चाहता हूँ ।
घैर्यबानफों समी दयन प्रात हेते हैं; यट भुतिका वचन
सत्य है । आपको तो शुतिके इस कथमसे सन्तोध धारण
करना ही उदित है; क्योंकि आपका यह शरीर अमी द्व्
है। यदि मेरा भी शरीर किसी प्रकार नीरोग हो जव,
तो मैं एक-एक क्षणमें यह सत्कर्य करूँ, जिसको
# सम्दृभद्-बारूकका संवाद और न्द्मद्की भुक्ति #
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एक-एक युगमे भोगा अ सकता दै । इन्द्रियोँ जिसके वस्मे
हों और शरीर जिसका द्द् हो, यह भी यदि साथनके सिवा
और किसी वस्तुकी इच्छा करे, तो उससे बदृकर मूर्ख कौन
हो सकता है १ मूर्ख मनुष्यक्रो ही प्रतिदिन झोकके सदसो
और षके उकड़ों खान प्रत्त दते र, विद्वान पुरुषकों
नहीं ।# जो शानक्रे विरद हों। जिनमें नाना प्रकारके बिनाझ-
कारी वि प्रास हों तथा जो मूलका दी उच्छेद कर डाटनेवलि
हों; ऐसे कम में आप-जैसे शुदधिमान् पुरुषोकी आसक्ति नहीं
होती । आठ अन्ञॉवाडी जिस बुद्धिकों सम्पूर्ण भेवकी सिद्धि
करनेवाली बताया गया दै, वह वेद और स्मृतियोंके अनुकूल
चअलनेवाली निर्मल बुद्धि आफ्के भीतर मौजूद है । इसलिये
आफ्जैंसे छोग दुर्गम सह्ूृटोमे तथा स्वजनोंकी विपत्तियोँमें
भी शारीरिक और मानसिक दुःखो पीढ़ित नहीं होते ।
पण्डितोंकीसी बुद्धियाले पिवेकी मनुष्य श्राप्त होने योग्य
अस्तुकी भी अभिरापा नहीं करते, नष्ट हुईं वस्तुके लिये
शोक करना नहीं चाहते तथा आपत्तिपोंमे मोटेत नहीं
होते हैं । सम्पूर्ण जात् मानसिक और शारीरिक दुःलॉलि-
पीड़ित है | उन देनो प्रकारके दुः& फ्री शाम्तिका उपाय
विस्तारपूर्वक और संज्षेफ्ते भी मुनिये | रोग। अनिष्ट वस्तुकी
श्निः परिभम तथा अभी वस्लुके वियोग--इन चार करणो.
से शारीरिक और मानसिक दुःख उत्पन्न होते हैं। भगिषश्न
संयोग और प्रिश्का वियोग--यद दो प्रकारका मानसिक
महाकए बताया गया हैं । इव प्रकार यहाँ शारीरिक और
मानसिक दोनों भरन्नरका दुःख बताया गया । जैसे छोहपिण्ड-
के तप जानेसे उसपर रक्ला हुआ घड्रेका कड भी गरम हो
जाता है, उसी प्रकार मानिक दुःखसे शरीरकों भी सन्ताप
होता दे । अतः शीघ्र है औषध आदिके द्वारा उचित
प्रतीकार करनेसे व्याधि अर्थात् शारीरिक दुःखका और
सर्वदा परित्याग करनेते आधि अर्थात् मनसिक दुःखका
शमन होता है। इन दो क्रियायोगोंसे व्याथे ओर आधिकी
शान्ति दायी गयी है । इसलिये जैसे जहसे आगक़ों बुझाया
अता है; उसी प्रकार शनसे मानसिक दुःखको शान्त करे ।
मानसिक दुःखके शन्त होनेपर मनुष्य शारीरिक दुःख
भी शान्त शो ता दै । मनके दुःखकी जड़ दै स्नेह। रनेहसे
ही प्राणी आसक्त होता है और दुःख पाता है । स्नेहसे
# झोकलानलइलाणि इपंखानशझतानि थ।
दिके दिक्ते मूढमाबिशन्ति न पब्डितस् ध
( स्छ० भा कुमां० ४१।२३१)}