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» पुराण परप॑ पुण्यै भविष्यं सर्वसौख्यदम् «
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
है! । पुनः मुझसे ही क्रह्मादि देवगण तथा चराचर उत्पन्न होते
हैं। हे प्रिलोचन ! मैं सम्पूर्ण जगतमें व्या ह । इसलिये मेरे
व्योमरूपकी आराधना आपसहित ब्रह्म, विष्णु भी करें।
ब्रित्सेचस ! आप गन्धमादनपर दिव्य सहस्न वर्षोतक तपस्या
करके परम शुभ षडङ्ग -सिद्धिको प्राप्त करें। जनार्दन ! आप
मेरे व्योमरूपकी श्रद्धा और भक्तिपूर्वकं आराधना
कलापश्राममें निवास कर करें । जगत्पति ब्रह्मा भी अन्तरिक्षमें
जाकर लोकपावन पुष्करतीर्थमे मेरी आराधना करें । इस प्रकार
आराधना करनेके पश्चात् कदम्बके समान गोल्मकार,
रङ्िमिमालासे युक्त मेरी मूर्तिका आपलोण दर्शन करेगे ।
इस प्रकार सूर्यनारायणके वचनको सुनकर भगवान्
विष्णुने उन्हें प्रणाय कर कहा--देव ! हम सभी त्मेग उत्तम
सिद्धि प्राप्त करनेके लिये आपके परम तेजस्वी व्योमरूपका
पूजन-अर्चनकर किस विधिसे आराधना करें। परमपूजित !
कृपया आप उस विधिक बतलाकर मुझसहित ब्रह्मा और
शिवपर दया कीजिये, जिससे हमलोगॉको परम सिद्धि प्राप्त
होनेमें कोई विष्न-बाधा न पहुँच सके ।
भगवान् सूर्य ओले--देवताओंमें श्रेष्ठ वासुदेव आप
उषन्तचित्त होकर सुनिये। आपका प्रश्न उचित ही है। मेरे
अनुपम व्योमरूपकी आपलोग आगधना करें। मेरी पूजा
मध्याह्रकालमें भक्तिपूर्वक सदैव करनेसे इच्छित भक्ति प्राप्ति
हो जाती है। भगवान् सूर्यके इस वाक्यको सुनकर ब्रह्मादि
देवताओने प्रणामकर कहा--'देव! आप धन्य हैं,
हमल्गोको आपने अपने तेजसे प्रकाशित किया है, हमत्मेग
कृतकृत्य हो गये। आपके दर्षानपात्रसे ही सभी सत्ररगोको ज्ञान
प्राप्त हुआ है तथा तम, मोह, तनद्रा आदि सभी क्षणमात्रमें ही
टूर हो गये हैं। हमल्लेग आपके हो तेजके प्रभावसे उत्पत्ति,
पालन ओर संहार करते है । अब आप व्योमके पूजन-विधिकों
बतानेकी कृपा करे ।'
भगवान् आदित्ये कहा -- आपलोग सत्य ही कह
रहे हैं, जो मैं वही आपत्मेग भी है, अर्थात् आपलोगोकि
स्वरूपे मैं ही स्थित हूँ। अहैकारी, विमूढ, असत्य, कलहसे
युक्त ल्लेगोंके कल्याणके लिये तथा आपलोगोंके अन्धकार
अर्थात् तम-मोह्मदिकी निवृत्तिके लिये मैंने तेजोमय स्वरूप
प्रकट किया, इसलिये अहंकार, मान, दर्प आदिका परित्याग
कर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक निरन्तर आपलोग मेरी आराधना करें ।
इससे मेरे सकलः-निष्कल उत्तम स्वरूपका दर्शन प्राप्त होगा
और मेरे दर्शनसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जायैगी | इतना कहकर
सहस्लकिरण भगवान् सूर्य देवताओंके देखते-देखते अन्तर्धान
हो गये। भगवान् भास्करके तेजस्वी रूपका दर्शनकर ब्रह्मा,
विष्णु और शिव सभी आश्चर्यचकित होकर परस्पर कहने
लगे--'ये तो अदिति-पुत्र सूर्यनारायण हैं। ये महातेजस्वी
ल्तेकोंको प्रकाशित करनेवाले सूर्यनारायण हैं, इन्होंने हम सभी
ल्मरेगॉंको महान् अन्धकाररूपी तमसे निवत्त क्रिया है। हम
अपने-अपने स्थानपर चलकर इनकी पूजा करें, जिससे इनके
प्रसादसे हमें सिद्धि प्राप्त हो सके ।'
उस व्योमरूपकी श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजन करनेके लिये
अहणजी पुष्करक्षेत्रमें, भगवान् विष्णु शालग्राममें और वृषध्वज
जैकर गन्धमादन पर्वतपर चले गये। यहाँ पान, दर्पं तथा
अकारक परित्याग कर ब्रह्माजी चार करोणसे युक्त व्योमकी,
भगवान् विष्णु चक्रमे अङ्कित व्योमकी और शिव अग्रिरूपी
तेजसे अभिभूत व्योमवृत्तको सदा भक्तिपूर्वक पूजा करने
लगे । ब्रह्मादि देवता गन्ध, मात्म, नृत्य, गीत आदिसे दिव्य
सहस्र वर्षोतक सूर्यनारायणकी पूजाकर उनकी अचल भक्ति
और प्रसन्नता-प्राप्तिके लिये उत्तम तपस्या तत्पर हो गये।
सुमन्तु मुनि खोले--महाराज ! देवताओंके पूजनसे
प्रसन्न हो वे एक रूपसे ब्रह्मके पास, एक रूपसे शौकरके पास
तथा एक रूपसे विष्णुके पास गये एवं अपने चतुर्थ रूपसे
रथारूढ हो आकाशमें स्थित रहे। भगवान् सूर्यने अपने
योगबलसे पृथक्-पृथक् उन्हें दर्शन दिया। दिव्य रधपर
१-अन्य पुनो तथा ख्य, बेदाक्त आदि द शौनोकि उभ्नुस्डर आकङ्क मनस्तत््वये, मन्य अहतत्वमे ओर अशक महत्-तत्त्कमें, महत्तत्वका
अव्यक्त -तत्वये ॐदैर च्यतत सत् -तच्वमे लय होता हैं, जो संकल्प-विकल्पमें शून्य होता है अलैर पुनः सृष्टिके स्मय सत्-तत्वमे कलनाके साथ
अग्यक्त, महत्, मन, अहँक्सके बाद आक्रशक्ये उत्पत्ति देती है ।
२-योगवाशिष्ठमें सबको व्योमके ही अकार्गत स्थित मानकर हृद-व्योम-ठफ़ासना (दहर-ठपासना)का निर्देश हैं और अहासूत्रके
' आकापास्तल्लिज्भात्' इस सूत्रमें आकार शब्दका अर्थं परमात्मा माना गया है।