श अथर्ववेद संहिता पाग-९
१००८. अश्मवर्म मेऽसि यो मा ध्रुवाया दिशो ऽघायुरभिदासात्।
एतत् स ऋच्छात् ।\५ ॥
हे अश्मवर्म ! आप हमारे हैं । जो पापी धुव दिशा से हमे विनष्ट करना चाहते है वे स्वयं नष्ट हो जाएँ ॥५ ॥
१००९. अश्मवर्म मेऽसि यो मोर्ध्वाया दिशो ऽघायुरभिदासात्। एतत् स ऋच्छात् ॥६ ॥
हे अश्मवर्म ! आप हमारे हैं । जो मनुष्य ऊर्ध्व दिशा से हमे विनष्ट करना चाहते हैं, वे स्वयं नष्ट हो जाएँ ॥६ ॥
१०१०. अश्मवर्म मेऽसि यो मा दिशामन्त्देशेभ्योऽधायुरभिदासात्।
एतत् स ऋच्छात् ॥७ ॥
हे अश्मवर्म ! आप हमारे है । हमें मारने की इच्छा वाले जो पापौ अन्तर्दिशाओं से हमें विनष्ट करना चाहते
हैं, वे स्वयं ही नष्ट हो जाएँ ॥७ ॥
१०११. बृहता मन उप हवये मातरिश्वना प्राणापानौ । सूर्याच्चक्षुरन्तरिक्षाच्छोत्रं पृथिव्याः
शरीरम्। सरस्वत्या वाचमुप ह्वयामहे मनोयुजा ॥८ ॥
वृहत् चन्द्रदेव से हम मन का आवाहन करते है, वायुदेव से प्राण-अपान, सूर्यदेव से चश्षु, अन्तरिक्ष से श्रोत्र,
धरती से शरोर तथा मनोयोगपूर्वक (प्रदान करने वाली; सरस्वती से हम वाणी की याचना करते है ॥८ ॥
[११ - संपत्कर्मं सूक्त ]
[ ऋषि - अथर्वा । देवता - वरुण । छन्द - वरषटप, १ भुरिक् त्रिष्टप, ३ पंक्ति, ६ पञ्चपदा अतिशक्वरी. ११
ग्यवसाना षर्पदा अत्यष्टि । ]
१०१२. कथं महे असुरायात्रवीरिह कथं पित्रे हरये त्वेषनृम्ण: ।
पृश्निं वरुण दक्षिणां ददावान् पुनर्मघ त्वं मनसाचिकित्सीः ॥९॥
हे अत्यधिक बलवान् तथा ऐश्वर्यवान् वरुणदेव ! पालनकर्ता तथा प्राणदाता सूर्यदेव से आपने क्या-क्या
कहा था? हे बारम्बार धन प्रदान करने वाले देव ! आप सूर्यदेव को (जलरूप) दक्षिणा प्रदान करते है ओर मन
से हमारी चिकित्सा करते हैं ॥१ ॥ ।
१०१३. न कामेन पुनर्मघो भवामि सं चक्षे कं पृश्निमेतामुपाजे ।
केन नु त्वमथर्वन् काव्येन केन जातेनासि जातवेदाः ॥२ ॥
हम इच्छा मात्र से ही पुनः - पुनः ऐश्वर्यवान् नहीं ब॑ने हैं; लेकिन सुख के लिए सूर्यदेव से स्तुति करने पर
इस सुखपूर्णं अवस्था को प्राप्त करते हैं । हे अथर्ववेदीय ऋत्विज् ! आप किस कुशलता द्वारा जातवेदा अग्निदेव
( के समान ओजस्वी) हो गये हैं ॥२ ॥
१०१४. सत्यमहं गभीरः काव्येन सत्यं जातेनास्मि जातवेदाः ।
न मे दासो नार्यो महित्वा व्रतं मीमाय यदहं धरिष्ये ॥३ ॥
यह सहो है कि मैं गभीर हूँ और वैदिक (उपचारो ) के माध्यम से "काव्य' कहलाता हूँ । जिस वत को पै
धारण करता हूँ, उस त्रत को मेरी महिमा के कारण कोई आर्य और दास तोड़ नही सकता ॥३ ॥
१०१५. न त्वदन्यः कवितरो न मेधया धीरतरो वरूण स्वधावन् ।
त्वं ता विश्वा भुवनानि वेत्थ स चिन्नु त्वज्जनो मायी विभाय ॥४ ॥